Monday, January 25, 2010

बिन भाषा के गूंगे-बहरे राष्ट्र में काहे का गणतंत्र



गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर गुजरात हाईकोर्ट का राष्ट्रभाषा के संदर्भ में एक जनहित याचिका पर जो फैसला आया, उसमें नियमों और कानूनों से बंधी कोर्ट की बेबसी तड़पा देने वाली है। डिब्बाबंद सामग्री पर हिंदी में निर्देश न छपवा पाने के फैसले का आधार बना हिंदी का राष्ट्रभाषा न होना... कोर्ट ने कहा हिंदी को राजभाषा का दर्जा तो दिया गया है, लेकिन क्या इसे राष्ट्रभाषा घोषित करने वाला कोई नोटिफिकेशन मौजूद है? अनुपयोगी जनसंख्या के सिलसिले में यह विषयांतर सा लगता हुआ ब्लाग समय से पहले स्वत: इसलिए भी जुड़ गया है, क्योंकि यह मुद्दा भी देश की उन्नति-प्रगति से जुड़ा है।
बहरहाल ब्लागिया टिप्पणी से पहले आप मामला समझ लें कि पिछले साल सुरेश कचाडिय़ा ने गुजरात हाई कोर्ट में पीआईएल दायर करते हुए मांग की थी सामानों पर हिन्दी में डीटेल लिखे होने चाहिए और यह नियम केंद्र और राज्य सरकार द्वारा लागू करवाए जाने चाहिए। वहीं पीआईएल में कहा गया था कि डिब्बाबंद सामान पर कीमत आदि जैसी जरूरी जानकारियां हिन्दी में भी लिखी होनी चाहिए। जिसके तर्क में कहा गया कि चूंकि हिन्दी इस देश की राष्ट्रभाषा है और देश के अधिकांश लोगों द्वारा समझी जाती है इसलिए यह जानकारी हिन्दी में छपी होनी चाहिए। इस पर चीफ जस्टिस एसजे मुखोपाध्याय की बेंच ने यह कहा कि क्या इस तरह का कोई नोटिफिकेशन है कि हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा है क्योंकि हिन्दी तो अब तक राज भाषा यानी ऑफिशल भर है। अदालत ने पीआईएल पर फैसला देते हुए कहा कि निर्माताओं को यह अधिकार है कि वह इंग्लिश में डीटेल अपने सामान पर दें और हिन्दी में न दें। अदालत का यह भी कहना था कि वह केंद्र और राज्य सरकार या सामान निर्माताओं को ऐसा कोई आदेश जारी नहीं कर सकती है।

कोर्ट का यह फैसला भारत यानी ऐसे देश (राष्ट्र नहीं ) में आया है, जिसमें राष्ट्रभाषा का प्रावधान संविधान में ही नहीं है, यहां उपलब्ध है तो केवल राजभाषा... यानी सरकारी काम की भाषा। यह स्थिति उस हाल में है जब देश की लगभग 60 फीसदी आबादी यानी करीब 65 करोड़ लोग इस भाषा का इस्तेमाल कई बोलियों के साथ करते हैं। अब सवाल यह है कि इनमें से कितने लोग होंगे जो संपर्क भाषा यानी अंग्रेजी नहीं जानते होंगे। जनसंख्यागत और शैक्षणिक आंकड़ों को देखा जाए तो इनमें से ठीक से अंग्रेजी में काम करने वालों का प्रतिशत बमुश्किल 10 से 15 फीसदी निकल पाएगा। यानी दवा के लेबलों से लेकर कानून, शिक्षा और कारपोरेट उत्पादों की बेढंगी दुकानों के उत्पाद और उनकी टर्म एंड कंडीशन इनकी समझ से बाहर होंगी। ऐसे लोगों की संख्या होगी करीब 55 करोड़ यानी लगभग आधा देश। शेष बचे लोगों के हालात क्षेत्रीय भाषा के बाद संपर्क भाषा में कैसे होंगे इस पर तर्क-वितर्क की गुंजाइश है, लेकिन हालात नहीं बदलेंगे। अब गणतंत्र दिवस पर भारत को राष्ट्र कहने का दंभ भरने वाले नेता और अकल बेचने वाले व्यक्ति-संस्थान देखें कि क्या कारण रहा कि गणतंत्र यानी लोगों का, लोगों द्वारा और लोगों के लिए कहलाने वाला सिस्टम लागू होने के साठ साल बीतने पर इंडिया (हिंदुस्तान नहीं) के पास आधिकारिक रूप से राष्ट्रभाषा नहीं है, यानी आधी आबादी को भाषा के लकवे से विकलांग कर पढ़े-लिखे जाहिलों के बीच अपनी सत्ता की दुकानें आराम से चलाते रहें। क्या कोई एक नेता यह बताने में सक्षम है कि बहुमत का जमाना कहने वाला सिस्टम देश के इतने बड़े तबके की अनदेखी क्यों कर रहा है, जबकि सूरते हाल यह है कि लगभग पूरे देश में हिंदी-बोली समझी जाती है। यहां क्षेत्रीय भाषाएं भी हैं, लेकिन वहां भी कुछ एक दूरस्थ और पूर्वाग्रह से ग्रसित दक्षिणी हिस्सों को छोड़ कर शायद ही कहीं हिंदी की स्वीकार्यता में कमी हो।

वोटबैंक के लिए अंतरराष्ट्रीय अंग्रेजी भाषातंत्र व देश में क्षेत्रीय भाषाओं की ओट लेने वाले नेता और ज्ञान-विज्ञान के नाम पर अंग्रेजी की दुहाई देने वाले लोग, इन पचास करोड़ से ज्यादा ज्ञान वंचित हिंदी भाषियों के लिए क्या करेंगे? क्या वे राष्ट्र गौरव के नाम पर हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिला कर चीन, जर्मनी, रूस और जापान की राह पर जाकर सफलता के नए अध्याय लिखेंगे या मानसिक गुलाम नेताओं से पाई बेडिय़ों से आने वाली नस्लों को जकड़े रहेंगे। देश के सर्वोच्च जनप्रतिनिधित्व मंदिर संसद और सुप्रीम कोर्ट में अगर हिंदी को बेहतर जगह मिले तो मातृभाषा में सोचने वालों की इतनी बड़ी संख्या राष्ट्र को नवनिर्माण पथ पर कहां ले जाएगी... अनुमान लगना बेशक कठिन हो पर सोच कर जरूर देखना।

Saturday, January 23, 2010

जाति और शिक्षा की जंग में हैं जीत के बीज



माफ करना मेरी यह पोस्ट राहुल गांधी के सिलसिले में जारी चर्चा के बीच सुरेश चिपलूनकर के पुराने ब्लाग का जवाब बन कर भी नजर आएगी और कई तथ्य वहां आप को जस ते तस भी मिल सकते हैं दरअसल अनुपयोगी जनसंख्या के सिलसिले में आम विचारों को खोजता हुआ मैं वहां पहुंच गया था और सिलसिले से सिलसिला मिल गया। दर हकीकत राहुल तो निमित्त नजर आते हैं, दरअसल संस्कारों की घुट्टी में मिली सामंती सोच ने देश की प्रगति को जकड़ कर रखा है, जिसका नाता न केवल देश की अनुपयोगी (शैक्षिक जनसंख्या से है ) बल्कि विकास से भी है। शायद इसिलिए सुरेश चिपलूनकर जैसे तथाकथित विचारवान लोग भी इसकी चपेट में आने से नहीं बच सके हैं। ( संदर्भ सरेश चिपलूनकर का ब्लाग आरक्षण आक थू)


देश को ताजा नेतृत्व की जरूरत है, क्योंकि देश की प्रगति के सवाल का जवाब हैं नीचे लिखे सवालों जैसे कई सवाल जो सोते हुए लोगों को जगाने के लिए पर्याप्त हैं।

1 भारत की कितनी आबादी अनुपयोगी है (शैक्षिक लिहाज से)

2 इस अनुपयोगी आबादी में कितने फीसदी लोग आरक्षण श्रेणी में आने वाले तबके के हैं।

3 इन अनुपयोगी लोगों में कितनी महिलाएं हैं।

4 आरक्षित आबादी के कितने लोगों को आरक्षण का लाभ मिला है और किस श्रेणी पर

5 भारत की सर्वोच्च सिविल सेवाओं के शीर्षस्थ पदों पर कितने फीसदी लोग आरक्षण से पहुंचे हैं। तीसरे और चौथे दर्जे पर पहुंचने वालों को आधार न बनाएं तो बेहतर।

6 देश की किसी भी तरह की शीर्षस्थ संस्थाओं में उच्च पदों पर जातिगत समीकरण क्या है, इसमें आप अपनी सुविधा के लिए डिब्बाबंद सुअर मांस बेचने वालों से लेकर सरकार तक सभी को शामिल कर सकते हैं।



तर्कसम्मत ढंग से सोचना कि हमारी बढ़ती आबादी आग क्यों बन रही है ऊर्जा क्यों नहीं। फिर भी कहीं कसर बच जाए तो इन बिंदुओं का ध्यान करना बात बन जाएगी।



1 जापान किस चीज के दम पर दुनिया में अपनी हस्ती बनाए हुए है?

2 इजराइल की अस्मिता का राज क्या है?

3 आबादी में आगे चीन इतना ताकतवर कैसे हो गया?



1947 से अब तक अगर शैक्षिक व सरकारी तंत्र में वास्तविक रूप से आरक्षण प्रभावी होता तो देश में साक्षरता सौ फीसदी तक पहुंच गई होती और आज हालात ये हैं कि भारतीय मस्तिष्क जिसका लोहा दुनिया मानती है, उसके दो तिहाई युवा निरक्षर हैं (इसका स्रोत संयुक्त राष्ट्र की रपट है), सोचो अगर ये सब काबिल होते तो क्या केवल आरक्षित-अनारक्षित नौकरियों के लिए रेस लगाते या रोजगार के नए क्षेत्रों और आयामों का सजृन करते हुए दुनिया की जरूरत बन जाते। अगर वैसे कुछ होता तो तकनीक या अन्य तरह के विविध ज्ञान के अस्त्रों से लैस यह युवा आज देश को किस स्थिति में पहुंचा चुके होते।

देश के विचारवान लोगों की भीड़ जो सामंती सोच के गुंड़ों के गिरोह में तब्दील हो कर विघटन में जुट गई है उसे अगर जोर लगाना है और वह वाकई देश का भला चाहती है तो हजारों साल से उच्च वर्ग के सताए हुए वर्ग पर टिप्पणियां छोड़ कर यह सोचे कि अगर यह वर्ग भी किसी तरह से शिक्षित हो कर मुख्यधारा में शामिल हो गया तो हिंदु सामाजिक संस्तरण भले ही बराबरी पर आ जाए लेकिन देश कहां से कहां पहुंचेगा। संसद में देश का प्रतिनिधित्व करने वालों को गरियाने से बेहतर होगा कि यह सोचें कि देश के युवाओं को किसी नई दिशा में जाना चाहिए न कि ठहरे हुए पानी की कम पड़ती मछलियों (नौकरियां और शैक्षणिक संस्थाओं पर आरक्षण) पर हक जमाने के लिए जातिवाद और नस्लवाद को भड़काएं।

Thursday, January 21, 2010

राहुल रंग भरो कैनवास तुम्हारे सामने है




राहुल गांधी को परिस्थितियों, तकदीर और उनकी मेहनत ने ऐसी स्थिति में ला खड़ा किया है कि वे और उनकी ब्रिगेड देश को नई दिशा की ओर ले जा सकती है और अगर सत्ता सुंदरी ने मोह लिया तो फिर वही होगा जो पिछले कई सालों से सियासत में जारी है.... पिछली पोस्ट में मैने कहा था कि देश की सबसे बड़ी समस्या है अनुपयोगी जनसंख्या जो देश को दावानल की तरह लील रही है। मेरा अभिप्राय अनुपयोगी से क्या है इसे स्पष्ट करने में जगह और जोर दोनों जरूरी हैं. इसलिए इस क्रम की पहली कड़ी के रूप में जान लिजिए कि केवल शैक्षिक लिहाज से देश किस दिशा में जा रहा है। इस काम में मैने लफ्फाजी की बजाए संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट को आधार बनाया है। रिपोर्ट के चुनिंदा अंश पेश हैं। यह आंकड़े और इससे जुड़े तथ्य देश को कैसे प्रभावित कर रहे हैं और क्या संभावनाएं हैं यह सभी कुछ आगे के अंकों में आपको पढऩे को मिलेगा।




भारत में अभी भी बड़ी आबादी है निरक्षर : यूनेस्को



शिक्षा के क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि दुनिया में भारत में अभी भी बड़ी आबादी निरक्षर है। 'दी एजुकेशन फोर आल : ग्लोबल मोनिटरिंग रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया में 79 करोड़ 90 लाख निरक्षर वयस्कों में से भारत में इनकी संख्या सर्वाधिक है। यूनेस्को की रिपोर्ट कहती है कि जिन सात करोड़ 20 लाख बच्चों को प्राथमिक स्कूल में और जिन सात करोड़ दस लाख किशोरों को माध्यमिक स्कूलों में होना चाहिए था वे वहां नहीं हैं और यदि यही चलन जारी रहा तो वर्ष 2015 तक पांच करोड़ 60 लाख बच्चे प्राथमिक स्कूलों से बाहर होंगे।
यूनेस्को की रिपोर्ट में कहा गया है कि 1985 से 1994 के बीच देश में करीब आधी वयस्क आबादी निरक्षर थी। चूंकि वयस्क आबादी में 45 फीसदी का इजाफा हुआ है, इसलिए अब यह संख्या दो तिहाई हो गई है।
रिपोर्ट में लैंगिक असमानता पर भी रोशनी डाली गई है जहां 28 विकासशील देशों में स्कूलों में दस लड़कों के पीछे नौ या उससे कम लड़कियां हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि कुल निरक्षर आबादी में दो तिहाई संख्या महिलाओं की है।
शिक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र की इकाई की कार्यकारी निदेशक बोकोवा ने कल संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में रिपोर्ट जारी करते हुए कहा कि कम शब्दों में कहें तो यह एक भ्रमित पीढ़ी को पैदा करेगा जो समाज के लिए भारी क्षति है।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि कम आय वाले देशों में शिक्षा की गुणवत्ता बेहद खराब है और दक्षिण एशिया में जाति प्रथा शिक्षा में बाधा पहुंचा रही है। ग्रामीण भारत में तीसरी कक्षा के मात्र 28 फीसदी बच्चे दो अंकों की जमा घटा कर सकते हैं और तीन में से केवल एक बच्चा घड़ी में देखकर समय बचा सकता है। रिपोर्ट कहती है कि भारत के ग्रामीण इलाकों में वोकेशनल कार्यक्रमों तक केवल तीन फीसदी युवकों की पहुंच है और इस बात के बहुत कम संकेत मिलते हैं कि इससे युवकों को रोजगार पाने में किसी प्रकार का लाभ हो रहा है।
इस पूरे सिलसिले में सबसे महत्वपूर्ण पहलू जो उभरे हैं वह हैं, युवा, बच्चे, लैंगिक आधार पर शिक्षा में खाई और जाति व्यवस्था। इन विषयों विचार करें तो लगेगा अभी तो काम शुरू भी नहीं हुआ है।

Wednesday, January 20, 2010

राहुल रोशनी न बुझे, अगर जलाएं हैं चराग उम्मीदों के...

राहुल गांधी मध्यप्रदेश आए, छात्रों से मिले, राजनीति में आने का न्योता दिया, साफगोई से कड़वे आरोपों को स्वीकार किया... बहुत बरसों बाद राजनीति की गहरी गंदली काई छंटती सी महसूस हुई। लेकिन बधाई पाने के लिए अभी इंतजार करें। बहुत सवाल बाकी हैं नियती, नीति और नियत का आइना अभी धुंधला है, अगर ये साफ हो कर सच बोलने लगे तो बात बनेगी।
पता नहीं राहुल ब्रिगेड ने इस पर मंथन किया है या नहीं कि लाल बहादुर शास्त्री के बाद वाले राजनीतिक परिदृश्य में नेताओं की स्वीकार्यता क्यों कम होती चली गई और लोग (खासकर अच्छे लोग) पहल करने, सामने आने और साथ देने तक में कतराने लगे हैं, नई पीढ़ी इस घुट्टी के साथ टारगेट हिट करने में जुटी है कि जहां से जैसे भी जो भी लाभ मिले ले लो और आगे बढ़ो, देश और समाज को रिटर्न देने की चिंता गई तेल लेने... क्योंकि इसके नाम पर खून चूसने वाला सिस्टम और राजनीति की रोटी सेंकने वालों की दुकाने कदम-कदम पर सजी हैं। देश के शीर्ष राजनीतिक प्रतिनिधियों का मेकअप स्टिंग आपरेशनों से लेकर संसद के गलियारों में बेलगाम बयानों और कोर्ट की कार्रवाइयों तक में लगातार उतरता जा रहा है और जो बचा-खुचा नजर आ रहा है, लगता नहीं है कि कोई उसे प्रेम करने की हिम्मत करेगा। हां अपनी जरूरतों को निकालने के लिए फालोअर मिल जाएं या दीवाने जुट जाएं ये बात जुदा है।
इस सूरते हाल में राहुल अगर घर (संगठन) संवारने की राह पर निकलें हैं तो अच्छा है क्योंकि नीति और नियत पाकीजा हुए तो फिर उम्मीदों के चिरागों की रोशनी कहां तक पहुंचेगी यह दुनिया बताएगी। राहुल मध्यप्रदेश प्रवास में संगठन के आंतरिक लोकतंत्र और युवा पीढ़ी को कांग्रेस से जोडऩे पर फोकस नजर आए, लेकिन सवाल ये है कि जिस दिशा में जिस अंदाज में राहुल गांधी आगे बढ़ रहे हैं वह कैसे और कितने फल देगा और उसका लाभ वितरण कैसे होगा। दूसरा पहलू यह है कि क्या यह सिर्फ अगले चुनाव के लिए सेना जोडऩा और उसे दुरुस्त और चाक-चौबंद करना है या नियत में इससे आगे का भी कुछ और ऐजेंडा छिपा है। अगर है तो अच्छा है वरना समझ लो कि यह मौका है जैसे राजीव गांधी ने देश को तकनीक, सूचना-प्रोद्योगिकी क्रांति का स्वाद चखाया था, वैसे ही यह देश अपनी सबसे दुखती रग अनुपयोगी जनसंख्या को सबसे मजबूत पक्ष के रूप में ढाल सकता है। जरूरत है केवल दृढ़ संकल्प वाले सच्चे लीडर की, उसे साथी तो मिल ही जाएंगे।
बहुत संक्षेप में अपनी बात कहने की कोशिश की है, इस मैसेज को कवर पेज की तरह देखें तो ज्यादा अच्छा होगा, अगर कोई सुपात्र चाहेगा तो इसके डिटेल बताने वाले इंडेक्स भी इसी पते पर प्रकाशित किए जाएंगे और अगर पसंद आने पर यह बात आगे बढ़ी तो आंकड़ों के साथ इस विषय पर क्रमवार बहुत सारे पेज इसे पूरी मेग्जीन की शक्ल दे देंगे।