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Monday, March 26, 2018

सत्ता कब्जाने वंचित वर्गों से साजिश

बहुत बेचैनी है... सोशल रिसर्चर्स और वंचित वर्गों के थिंक टैंक में। शासन-प्रशासन के संस्थागत परिवर्तन और कोर्ट के फैसलों से जुड़ती कड़ियां अंधियारी तस्वीर बना रहीं हंै। योजना आयोग समेत प्रशासनिक व्यवस्था तथा शिक्षा के ढांचे में बदलाव जैसे सियासी फैसलों के बीच तीन तलाक और एससी-एसटी एक्ट में शिथिलता जैसे अदालती फैसले आए हैं। इससे जहां अनुसूचित जातियों को अस्पृश्यता के दंश याद आ रहे हैं, वहीं मुस्लिम समुदाय में यह संदेश उपजा है कि उनके घर में सियासत ने तीन तलाक के दांव से लैंगिक आधार पर बंटवारा हो गया है। इनके अलावा पिछड़े वर्गों की कई कमजोर जातियां भी धुंधलके में हैं।
संविधान से धाार्मिक स्वतंत्रता के उत्सव और अवसर मिलने से अस्पृशयता वाली पहचान को भूलने वाली अनुसूचित जातियां परसंस्कृतिकरण का पर्याय बन बन चुकी हैं। इनमें से अधिकांश अपने आप को सबसे बेहतर हिंदू साबित करने में सत्ताभेदी सियासी राष्ट्रवाद का हिस्सा भी बन रही हैं। लेकिन ये भूल गए कि अंग्रेजों द्वारा 1872 में पहली जनगणना के बाद से अस्पृश्य जातियों को हिंदुत्व में शामिल करने का सिलसिला शुरू हुआ था जो 1931 की जातिगणना आने तक व्यापक स्वरूप में आ चुका था, जिसमें सबसे घृणित सफाईपेश जाति को वाल्मिकी नाम दिया गया जो संख्या के लिहाज से इस वर्ग में दूसरे नंबर पर थी। इसके  अलावा कई सदियों से सताई गईं ये जातियां जब संचार माध्यमों के जरिए एकत्र हो कर शक्तिपुंज बनने लगीं तो उनकी सामाजिक मर्यादा सुनिश्चित करने वाले अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के प्रावधान सुप्रीम कोर्ट ने इतने लचीले कर दिए हैं कि उसके औचित्य पर ही सवाल उठने लगे हैं। यानी लगभग एक चौथाई आबादी ऐसे संक्रमणकाल में दाखिल हो गई है जहां वे सदियों की यातना भूल रहे थे पर आगे का रास्ता अंधियारा होता जा रहा है। चाहे लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार हो या, मिर्चपुर गोहाना या खैरलांजी, यहां दमन का शिकार दलित न्याय से वंचित ही रहे हैं।  शंका है कि जब एससी-एसटी एक्ट के इतने सख्त प्रावधान  होने के बाद भी सजा का प्रतिशत एक चौथाई भी न हो तब आगे क्या होगा? क्या गारंटी कि संविधान से मिले अधिकार प्रभावित नहीं होंगे, जिनमें शामिल है अनुच्छेद 14 : विधि के समक्ष समता। अनुच्छेद 15 : धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद प्रतिषेध । अनुच्छेद 17 : अस्पृश्यता का अंत। अनुच्छेद 21 : प्राण- दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण। अनुच्छेद 23 : शोषण के विरूद्ध अधिकार।
दरअसल इनके अलाव भी देश की कुल आबादी का दो तिहाई वंचित वर्ग 21 वीं शताब्दी में भी रोटी-कपड़ा मकान जैसी मूलभूत जरूरतों के सियासी खिलौना बने हुए हैं। वैश्विकरण और सूचना क्रांति के बाद उपजे नए अवसरों के बीच मनरेगा से शुरू कहानी, भोजन के अधिकार से होते हुए प्रधानमंत्री आवास और स्वच्छता और शौचालय निर्माण के अध्याय तक आ चुकी है। लेकिन यह मूल सवाल यहां से गायब हो चुका है कि आजादी के इतने सालों बाद तक इन्हें समाज की मुख्यधारा में लाकर स्वयं सक्षम क्यों नहीं बनाया जा सका। ये इनके खिलाफ षड़यंत्र था या सरकारों की निर्योग्यता? हालात ये हैं कि रोटी-कपड़ा मकान और धर्म में मशगूल ये वर्ग उस शिक्षा से महरूम है जो इन्हें शेष आबादी के साथ अवसरों की प्रतियोगिता में खड़ा कर सके।
शिक्षा का सरकारी स्कूली तंत्र देशभर में भरभरा रहा है, जबकि उच्च शिक्षा में अब भी सरकारी संस्थान सर्वोत्कृष्ट बने हुए हैं। इससे स्कूली स्तर पर ही इस वर्ग की अधिकांश छात्र आबादी ड्रॉपआउट हो रही है। जो बचते हैं उन्हें उच्च शिक्षा और अवसरों की प्रतियोगिता के लिए औसत योग्यता के कारण कड़ी चुनौतियों से जूझना पड़ रहा है। दूसरी और बाजारवाद और वैश्विकरण के दबाव से मुक्त जेएनयू जैसे संस्थान सामाजिक शोधादि से इन वर्गों में एक चेतना का निर्माण कर रहे हैं, जिसमें कन्हैया कुमार या शेहला रशीद जैसे छात्र वंचित वर्गों के यूथ आइकन बन रहे हैं, मगर अब 52 विश्वविद्यालय सरकारी सरपरस्ती से महरूम होंगे और सामाजिक शोध के बजाए बाजार के मुताबिक संचालित हो सकेंगे। क्योंकि शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन के लिए कस्तूरीरंजन कमेटी की रिपोर्ट जल्द ही पेश कर लागू करने की तैयारी है जिसमें गुणात्मक और कौशलविकास शिक्षा रिटर्न आॅफ मैकाले कही जा सकती है।
मौजूदा परिस्थिति में असमानता की खाई गहरी होने की आशंका है। चाहे वह शिक्षा और रोजगार के अवसर हों या कानून के समक्ष बराबरी का या जातीय अस्मिता का। ऐसे में देश के सभी समुदाय एक-दूसरे के प्रति शक शुबहे के भाव से ग्रसित हो सकते हैं। जबकि वास्तविकता में इससे किसी समूह वर्ग या जाति को कोई सीधा बड़ा फायदा नहीं मिल रहा। क्योंकि शासकीय स्तर के अवसर जनसंख्या के अनुपात में किसी समुदाय को ईकाई प्रतिशत में भी लाभ देने की स्थिति में नहीं है। लेकिन संदेश यही है कि दूसरे समुदाय उनके हक में सेंध लगा रहे हैं, इसमें असमानता की खाई फैलेगी। जहां वंचितों की सत्ता-अवसरों में भागीदारी और सामाजिक न्याय सबसे निचले आभासी स्तर पर होगा।

Friday, January 22, 2016

दबाव समूहों के नवसामंत

 हम प्रभावशाली दबाव समूहों के नवसामंतों के युग में जी रहे हैं जो आपके निर्णयों को नियंत्रित करने के लिए कुछ भी रचने को बेकरार रहते हैं। इसे स्थापित करता है  जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में फिल्म निर्माता करन जौहर का 'इंटॉलरेन्स' के मुद्दे पर उठाया सवाल।  करन ने कहा, 'आप अपनी जिंदगी के बारे में बोलने पर भी जेल में जा सकते हैं. तो फिर अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब ही क्या है? इसका मतलब तो यह हुआ कि अभिव्यक्ति की आजादी हमारे देश में सबसे बड़ा मजाक है और लोकतंत्र दूसरा बड़ा मजाक करन ने ये बात बेशक फिल्मी दुनिया के संदर्भ में कही होगी, लेकिन अगर आप इसे रोहित वेमुला केस से जोड़ कर देखेंगे तो आप पाएंगे कि जो बात मैंने कल आर्टिकल में लिखी है ये उसके समर्थन का एक अलग सा चेहरा है... रोहित की जान ही इसलिए गई कि उसने अभिव्यक्ति की आजादी को इस्तेमाल करने की कोशिश की थी।

Thursday, January 21, 2016

अनसुना कर ‘औकात’ बताना छोड़िए...

किसी मुद्दे को खत्म करने की ऐसी सियासी तड़प शायद ही पहले कभी देखी गई होगी। मंत्रियों और कुलपति को भाजपा की क्लीनचिट के तुरंत बाद मानव संसाधन मंत्री स्मृति इरानी ने अपने बयान से यह स्थापित करने की कोशिश की है कि रोहित वेमुला की खुदकुशी की वजह उसका दलित होना नहीं था। इस प्रकरण की कड़ियों को तथ्यों और जातियों से परिभाषित करने में  ऐसा पूर्वाग्रही एकालाप सुनाई दिया जो सोलहवीं- सत्रहवीं शताब्दी की मानसिकता का परिचय देता है। बंधुत्व,समानता या प्रजा जैसे शब्द और वर्ग जरूरतों और लक्ष्यों के मुताबित इस्तेमाल किए जाते हैं, जिसमें सुनवाई और न्याय, प्रभावशाली दबाव समूह के कारण नौटंकी बन कर रह जाता है। अनसुनी से ध्वनित होता है कि सुनवाई के लिए जिस हैसियत और औकात की जरूरत है वह तुम्हारे वर्ग की नहीं है।
रोहित वेमुला के लिए खुदकुशी आसान विकल्प था क्योंकि वह व्यवस्था से लड़ रहा था और उस पर जिम्मेदारियों का बोझ भी था। अगस्त 2015 की जिस फिल्म ‘मुजफ्फर नगर अभी बाकी है’ के प्रदर्शन को लेकर दलित बनाम दलित विरोधी संघर्ष शुरू हुआ उसमें कोई दलित मांग नहीं थी। बल्कि यह दलित छात्रों के समुदाय द्वारा अपने अधिकारों को स्थापित करने की चेष्ठा थी। यह ऊंचे सुर में बराबरी और वंचित एकता का उद्घोष था। इसे खामोश करने के लिए इतने स्तरों पर निष्ठुरों का पूरा वर्ग एकजुट हो कर इस जिद और जुनून को दबाने में लामबंद हुआ कि उस अंधे कुंए से आवाज बाहर लाने के लिए वेमुला को खुदकुशी करना पड़ी। हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी ने रोहित और उनके चार साथियों को न केवल होस्टल से निकाला बल्कि यूनिवर्सिटी में कई जगह जाना भी प्रतिबंधित कर दिया। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने इसमें मंत्री बंडारू दत्तात्रेय को यह समझाया कि इन अंबेडकरवादियों की गतिविधियां राष्ट्रद्रोही हैं, जिसे उन्होंने बकायदा पत्र के माध्यम से मानव संसाधन मंत्रालय को भेज दिया बगैर उनके संगठन का पक्ष जाने, इस पर मानव संसाधन मंत्रालय की अति सक्रियता कुछ ऐसी कि छह सप्ताह में पांच पत्र लिखे गए और आरोपित दलित छात्रों को आरोप मुक्त करने वाले कुलपति को बदलते ही नए कुलपति ने उन्हें नैसर्गिक न्याय से वंचित कर सीधी सजा सुना दी। न्याय के लिए  हाईकोर्ट तक उनकी हर पुकार अनसुनी रही और दलितों के नाम पर दुकानदारी करने वाले बड़े लोग खामोश और छोटे बेखबर बने रहे। अकेले लड़ने से हारे रोहित के जान देने के बाद सोशल मीडिया ने स्मृति को मनु स्मृति रानी बताया तो उनके बयान को झूठा बताते हुए दस दलित प्रोफेसरों ने इस्तीफे की पेशकश की है। लेकिन बड़े-बड़े दलित नरसंहारों और उसके बाद किसी को भी सजा न होने पर खामोशी रहने वाले अन्य जातीय या सामाजिक संगठन अब भी मूकदर्शक हैं।
ये अनदेखी और अनसुनी पिछले दस-पंद्रह सालों में लगातार बढ़ी है।  सामुदायिकता और सामुहिकता के नाम पर सबसे वंचित समुदायों के वास्तविक वंचितों के सवाल गुम होते जा रहे हैं, लेकिन अत्याचार और भेद का आधार वही जन्म है, जिसका जिक्र अपने सुसाइड नोट में रोहित वेमुला ने किया है कि मेरी जाति की मेरी मौत का कारण है... रोहित के सुसाइट नोट के कुछ वाक्य तो इस परिप्रेक्ष्य में दहला देने के लिए पर्याप्त हैं। ...मैं अपनी आत्मा और देह के बीच खाई को बढ़ता हुआ महसूस कर रहा हूं... एक इंसान की कीमत , उसकी पहचान एक वोट एक संख्या, एक वस्तु में सिमट कर रह गई है। कोई भी क्षेत्र हो, अध्ययन में, राजनीति में, मरने में जीने में कभी एक व्यक्ति को उसकी बुद्धिमता से नहीं आंका गया। मेरा जन्म मेरे लिए एक घातक हादसा है... मैं अतीत का एक शुद्र बच्चा... ये ऐसे सवाल हैं जिन्हें आवाज देने की कीमत रोहित ने अपनी जान से चुकाई है, लेकिन ये एक मामला है ऐसे कितने रोहित और कितने मामले हैं जिनमें अन्याय और भेद का आधार जन्म है।
बेशक ये कहा जाता हो कि ऊंचे आर्थिक या बौद्धिक वर्ग में प्रवेश करते ही समाज उदार हो जाता है और उसकी वर्जनाएं शिथिल हो जाती है, मगर ये आभासी लगता है। जब मध्यप्रदेश में हाल ही में आंदोलित हुए दलित समुदाय के दो आईएएस रमेश थेटे और शशि कर्णावत की व्यथा भी रोहित जैसी लगती है। मूल रूप से उनकी भी शिकायत यही है कि कोई ऐसा फोरम नहीं है,जहां तसल्लीबख्श और त्वरित सुनवाई हो। थेटे का कहना उन्हें चिन्हित कर ऐसे आरोपों में खींचा जा रहा है, जिसमें अन्य समुदाय के आरोपियों को नजरअंदाज कर दिया गया है, कुछ ऐसा ही आरोप शशि कर्णावत का भी है। सेवानिवृति के चंद घंटों पहले अपने घर पर विभागीय जांच का नोटिस चस्पा होने का रंज झेलने वाले वरिष्ठ आईएएस के सुरेश भी दलित समुदाय से थे, जिन्हें नियमों की रोशनी में उन्हें पदोन्नित दी जा सकती थी मगर मिली नोटिस की सूचना। समाज की मुख्यधारा में दलित बहुत ऊंचे मकामों तक भी पहुंचे हैं... यहां भेद न होने और कम होने का आभास-आंकलन भी है। इनमें समूह की पहचान से बाहर रहने और सामान्य होने के दबाव से ऐसा वर्ग बन गया है जो बड़े सवालों पर भी मौन है। असंगठित होने के कारण शेष लोग और उनके छोटे-मोटे संगठन अपनी जरूरतों में उलझे रहते हैं। ऐसे में सुनवाई की सटीक व्यवस्था लगातार टलते फैसले जैसी हो गई है जिसमें आज के प्रावधान अंतरिम व्यवस्था लगते हैं, औपचारिक सुनवाई से प्यास बुझने की बजाए ‘औकात’ पता चलती है। अगर उचित व्यवस्था हो तो ऐसे सवालों का वक्त रहते जवाब खोजा जा सकता है,मगर दलित सवाल तो अब हाशिए से भी बाहर खिसकने लगे हैं। जिनकी अनसुनी बड़ी गूंज बन सकती है।