राहुल गांधी मध्यप्रदेश आए, छात्रों से मिले, राजनीति में आने का न्योता दिया, साफगोई से कड़वे आरोपों को स्वीकार किया... बहुत बरसों बाद राजनीति की गहरी गंदली काई छंटती सी महसूस हुई। लेकिन बधाई पाने के लिए अभी इंतजार करें। बहुत सवाल बाकी हैं नियती, नीति और नियत का आइना अभी धुंधला है, अगर ये साफ हो कर सच बोलने लगे तो बात बनेगी।
पता नहीं राहुल ब्रिगेड ने इस पर मंथन किया है या नहीं कि लाल बहादुर शास्त्री के बाद वाले राजनीतिक परिदृश्य में नेताओं की स्वीकार्यता क्यों कम होती चली गई और लोग (खासकर अच्छे लोग) पहल करने, सामने आने और साथ देने तक में कतराने लगे हैं, नई पीढ़ी इस घुट्टी के साथ टारगेट हिट करने में जुटी है कि जहां से जैसे भी जो भी लाभ मिले ले लो और आगे बढ़ो, देश और समाज को रिटर्न देने की चिंता गई तेल लेने... क्योंकि इसके नाम पर खून चूसने वाला सिस्टम और राजनीति की रोटी सेंकने वालों की दुकाने कदम-कदम पर सजी हैं। देश के शीर्ष राजनीतिक प्रतिनिधियों का मेकअप स्टिंग आपरेशनों से लेकर संसद के गलियारों में बेलगाम बयानों और कोर्ट की कार्रवाइयों तक में लगातार उतरता जा रहा है और जो बचा-खुचा नजर आ रहा है, लगता नहीं है कि कोई उसे प्रेम करने की हिम्मत करेगा। हां अपनी जरूरतों को निकालने के लिए फालोअर मिल जाएं या दीवाने जुट जाएं ये बात जुदा है।
इस सूरते हाल में राहुल अगर घर (संगठन) संवारने की राह पर निकलें हैं तो अच्छा है क्योंकि नीति और नियत पाकीजा हुए तो फिर उम्मीदों के चिरागों की रोशनी कहां तक पहुंचेगी यह दुनिया बताएगी। राहुल मध्यप्रदेश प्रवास में संगठन के आंतरिक लोकतंत्र और युवा पीढ़ी को कांग्रेस से जोडऩे पर फोकस नजर आए, लेकिन सवाल ये है कि जिस दिशा में जिस अंदाज में राहुल गांधी आगे बढ़ रहे हैं वह कैसे और कितने फल देगा और उसका लाभ वितरण कैसे होगा। दूसरा पहलू यह है कि क्या यह सिर्फ अगले चुनाव के लिए सेना जोडऩा और उसे दुरुस्त और चाक-चौबंद करना है या नियत में इससे आगे का भी कुछ और ऐजेंडा छिपा है। अगर है तो अच्छा है वरना समझ लो कि यह मौका है जैसे राजीव गांधी ने देश को तकनीक, सूचना-प्रोद्योगिकी क्रांति का स्वाद चखाया था, वैसे ही यह देश अपनी सबसे दुखती रग अनुपयोगी जनसंख्या को सबसे मजबूत पक्ष के रूप में ढाल सकता है। जरूरत है केवल दृढ़ संकल्प वाले सच्चे लीडर की, उसे साथी तो मिल ही जाएंगे।
बहुत संक्षेप में अपनी बात कहने की कोशिश की है, इस मैसेज को कवर पेज की तरह देखें तो ज्यादा अच्छा होगा, अगर कोई सुपात्र चाहेगा तो इसके डिटेल बताने वाले इंडेक्स भी इसी पते पर प्रकाशित किए जाएंगे और अगर पसंद आने पर यह बात आगे बढ़ी तो आंकड़ों के साथ इस विषय पर क्रमवार बहुत सारे पेज इसे पूरी मेग्जीन की शक्ल दे देंगे।
बहुत बड़ी दुनिया में छोटे-छोटे पलों को जीने की ख्वाहिश और जिंदा रहने की जंग में अंतहीन दौड़ का हिस्सा हूं और डरता हूं गिरने से क्योंकि सबसे कठिन है जैसा अच्छा लगता है वैसा जीना... खोजता हूं अपने जैसे दीवानों को जो रोज भूलते हैं जरूरतों का प्रेम और सीखते हैं कैसे बिना मतलब किसी को अपनी रूह की गहराइयों में महसूस किया जा सकता है... जहां न रिश्ता हो न नाता न जरूरतें न मजबूरियां। मौजूद हो तो केवल यह अहसास कि कोई हमारा हो या न हो हम तो किसी के हैं।
Wednesday, January 20, 2010
Saturday, August 29, 2009
सरमद याद आया
अमेरिका के लास एंजिलस में गो टापलेस आंदोलन के चलते जब महिलाएं अनावृत स्तनों के साथ सड़कों पर आई एक बार फिर ये सवाल दुनियाभर में पहुंच गया है कि जब पुरुष टापलेस हो सकते हैं तो महिलाएं क्यों नहीं। आखिर प्रकृति से एकाकार होने का हक उन्हे क्यों न मिले... इन्हें दो मनुष्यों के बीच लिंग विविधता की दीवार और स्त्री पर अधिकार की जंजीर क्यों बनाया जाए। हम में से शायद ही कोई स्त्री होगी जिसने सीना अनावृत न कर पाने की बंदिशों के कारण कोई पीड़ा न उठाई हो। चाहे वह अपने नवजात को स्तनपान करने के वक्त की हो या तपती गरमी में बंद कमरे में पसीने से भीगने की... यौन भेद की इन दीवारों के औचित्य और गैरजरूरी होने पर काफी बहस की गुंजाइश है, मगर यह तय है कि सूरत तो बदलना चाहिए। इसी सिलिसले में दिल्ली के मस्तमौला फकीर सरमद का अक्स जहन में उभर आया है। उसे बादशाह औरंगजेब ने इसिलए मरवा दिया था, क्योकि वह आधा कलमा पढ़ता था और न तो किसी को पूज्य मानता था न ही कपड़ों की जरूरत महसूस करता था। कहते हैं जब उससे पूछा गया कि नंगा क्यों है तो उसने कहा मालिक (परमात्मा) ने गुनाहगारों को गुनाह छिपाने के लिए ये कपड़े और दूसरे परदे दिए हैं, मेरे और परमात्मा के बीच अब कोई परदा नहीं क्योंकि मैं सारे गुनाहों से मुक्त हूं। इसलिए कपड़ों की जरूरत क्या है। बस यही बात उसकी मौत का कारण बनी। स्त्रीयों के अनावृत स्तन को पापमुक्त मानने-देखने की ताकत व समझ दुनिया के कौने-कौने तक कब तक पहुंचेगी नहीं जानता, लेकिन यह तय है कि प्रकृति कभी फैशन बन कर तो कभी आंदोलन बन कर और कभी पोर्न इंडस्ट्री बन कर पुरुषवाद और महिलाओं को एकाधिकार वाली यौन दासियों में तब्दील करने वाली दीवारों में सुराख बनाती रहेगी।
Saturday, February 14, 2009
पब, पिंक चड्ढी और इतनी हाट ऐश- हर हाथ में दुखती रग

श्रीराम सेना ने पब में लडकियों को पीटा (आदमियों को क्यों छोड दिया?), निशा सूसन एंड पार्टी ने पिंक चड्ढी की धूम मचाई, शायद इसके अलावा विरोध का कोई जरिया नजर ही नहीं आया होगा, आखिर प्रगतिशीलता भी तो कोई चीज है। इस क्रम की बचीखुची कसर ऐन वैलेंटाइन डे पर बर्लिन में पिंक पैंथर पार्टी में एश्वर्या की हार्टशेप सेक्सी टापलेस ड्रेस ने पूरी कर दी। इससे माडर्न, एडवांस और ग्लोबल सोच वाली यूथ (बुढाती उमर में खुद को जवां दिखाने की अंतिम कोशिश एक्सपोजर पर मजबूर) आइकन और ख्यात बच्चन घराने की बहू ( जिसमें कई लोग अपनी बहू की छवि ढूंढते हैं) भला और कहां होगी... पर क्या करेगा काजी जब मियां बीबी राजी
असल में सब के सब अपने आप को मार्केट करने के लिए कंसेप्ट बेच रहे हैं, निशाना है अलग-अलग क्लास और कैटेगिरी के लोग। कई बार तो लोगों को ये चाले नजर ही नहीं आती और कुछ को आती भी है तो वे बहती गंगा में हाथ के साथ नहा-धो लेने में विश्वास करते हैं। चाहे श्री राम सेना का मुतालिक हो या सूसन सबको चाहिए इमोशनल सपोर्ट क्रिएट करने वाला ऐसा फंडा जो बिना एड और एक्सपेंडेचर के उन्हें ब्रांड बना दे, जिससे ये वक्ती नायक बाद में अपनी दुकानें चलाते रहें। मुतालिक ने पहले पब में हंगामा मचाया और बाद में वेलेंटाइन डे प्रोग्राम घोषित कर दिया, बस फिर क्या था, सज गई दुकान... गृहमंत्री का बयान और विरोध शबाब पर आ गया कल जिसे कोई जानता तक नहीं था नेशनल फीगर हो गया... अकल के अजीर्ण वाले बयानवीर ब्लागरों से ले कर फुरसती धंधेबाजों को काम मिल गया... कुछ कमअकल लोग बेकार में ही अब्दुल्ला दीवाना बन कर लगे नाचने....
खैर उनका तो काम हो गया अब चैप्टर नंबर दो शुरू होना था विरोध का... इसके लिए कुछ तय दुकानों की मोनोपाली है उनके बयान-बयान और स्ट्रेटेजी घोषित हो ही रही थी कि निशा सूसन के दिमाग के न्यूज एनालिसिस सेंसे ने सेक्स भडकाऊ, दिल धडकाऊ और बत्ती बुझाऊ टाइप का आइडिया उगल मारा और पुरानी दुकानों का दिवाला पिटने के साथ ही शुरू हो गया पिंक चड्ढी कैंपेन... अब यहां भी निठल्ले ज्ञानियों को कर्तव्य विद् लाइम लाइट एक्सपोजर का बोध हो गया और सौ पचास रुपए की चड्ढी की कीमत पर फेमेनिस्टि और एडवांस होने की डिग्री बंटने लगी। दुकान तो ऐसे सजाई गई गोया चड्ढी नहीं संपूर्ण स्त्रीत्व को पैक करके मुंह पर मार दिया गया है। चड्ढी भेजने के आइडिए के मायने सूसन बेहतर जाने पर किसी भी आम लडकी या औरत से पूछ कर देखें कि उसकी चड्ढी के मायने क्या हैं चाहे वह दुनिया के किसी भी हिस्से में रहती हो। उधर चड्ढी के बाजार में सेंध लगाने के लिए लगे हाथ कुछ भाइयों ने कंडोम का तडका लगाया, थोडी बहुत हलचल भी मची, लेकिन तब तक हमें क्या करना की खुमारी खेल बिगड ही रही थी कि मारल पुलिसिंग का महोत्सव वैलेंटाइन डे आ गया... देश भर में महान समाज सेवक निकल पडे लोगों को मोहब्बत और नैतिकता का पाठ पढाने...
इस मौके का फायदा उठाने की सबसे अलग कोशिश की ऐश्वर्या राय ने... हाथ से नक्षत्र समेत लगातार निकलते एड, पिटती फिल्में, घटती टीआरपी और जलवे के बुझते दीपक के बीच पिंक पैंथर की उम्मीद पर आलोचकों ने ढीला रिस्पांस और थकी फिल्म की मुहर लगा दी। तो... अब क्या करें, कैसे बताए कि रूप का जादू वही है जो मिस वर्ल्ड और उन दिनों के न्यूड पिक सेशन में था। सो अब तक के सबसे कम ( सार्वजनिक) कपडों में बर्लिन में फोटो सेशन करती नजर आईं.. क्या पता कल वे ही इसे इश्यू बनवा दें और पिंक पैंथर बगैर प्रमोशन के इतना नाम तो कमा ही जाए कि घोर पिटी के टैग और घाटे से बाहर आ जाए, ताकि आगे गुंजाइश बनी रहे खैर... देखते चलिए वक्त के इम्तिहान अभी और बाकी हैं। दुकानें बहुत हैं बच के चलें... समझदारी ओवरफ्लो हो तो अपनी भी सजा लें... टेपे हर कैटेगिरी में मिलते हैं, चाहिए बस एक ढंग का दुकानदार... जय हो... जय हो
असल में सब के सब अपने आप को मार्केट करने के लिए कंसेप्ट बेच रहे हैं, निशाना है अलग-अलग क्लास और कैटेगिरी के लोग। कई बार तो लोगों को ये चाले नजर ही नहीं आती और कुछ को आती भी है तो वे बहती गंगा में हाथ के साथ नहा-धो लेने में विश्वास करते हैं। चाहे श्री राम सेना का मुतालिक हो या सूसन सबको चाहिए इमोशनल सपोर्ट क्रिएट करने वाला ऐसा फंडा जो बिना एड और एक्सपेंडेचर के उन्हें ब्रांड बना दे, जिससे ये वक्ती नायक बाद में अपनी दुकानें चलाते रहें। मुतालिक ने पहले पब में हंगामा मचाया और बाद में वेलेंटाइन डे प्रोग्राम घोषित कर दिया, बस फिर क्या था, सज गई दुकान... गृहमंत्री का बयान और विरोध शबाब पर आ गया कल जिसे कोई जानता तक नहीं था नेशनल फीगर हो गया... अकल के अजीर्ण वाले बयानवीर ब्लागरों से ले कर फुरसती धंधेबाजों को काम मिल गया... कुछ कमअकल लोग बेकार में ही अब्दुल्ला दीवाना बन कर लगे नाचने....
खैर उनका तो काम हो गया अब चैप्टर नंबर दो शुरू होना था विरोध का... इसके लिए कुछ तय दुकानों की मोनोपाली है उनके बयान-बयान और स्ट्रेटेजी घोषित हो ही रही थी कि निशा सूसन के दिमाग के न्यूज एनालिसिस सेंसे ने सेक्स भडकाऊ, दिल धडकाऊ और बत्ती बुझाऊ टाइप का आइडिया उगल मारा और पुरानी दुकानों का दिवाला पिटने के साथ ही शुरू हो गया पिंक चड्ढी कैंपेन... अब यहां भी निठल्ले ज्ञानियों को कर्तव्य विद् लाइम लाइट एक्सपोजर का बोध हो गया और सौ पचास रुपए की चड्ढी की कीमत पर फेमेनिस्टि और एडवांस होने की डिग्री बंटने लगी। दुकान तो ऐसे सजाई गई गोया चड्ढी नहीं संपूर्ण स्त्रीत्व को पैक करके मुंह पर मार दिया गया है। चड्ढी भेजने के आइडिए के मायने सूसन बेहतर जाने पर किसी भी आम लडकी या औरत से पूछ कर देखें कि उसकी चड्ढी के मायने क्या हैं चाहे वह दुनिया के किसी भी हिस्से में रहती हो। उधर चड्ढी के बाजार में सेंध लगाने के लिए लगे हाथ कुछ भाइयों ने कंडोम का तडका लगाया, थोडी बहुत हलचल भी मची, लेकिन तब तक हमें क्या करना की खुमारी खेल बिगड ही रही थी कि मारल पुलिसिंग का महोत्सव वैलेंटाइन डे आ गया... देश भर में महान समाज सेवक निकल पडे लोगों को मोहब्बत और नैतिकता का पाठ पढाने...
इस मौके का फायदा उठाने की सबसे अलग कोशिश की ऐश्वर्या राय ने... हाथ से नक्षत्र समेत लगातार निकलते एड, पिटती फिल्में, घटती टीआरपी और जलवे के बुझते दीपक के बीच पिंक पैंथर की उम्मीद पर आलोचकों ने ढीला रिस्पांस और थकी फिल्म की मुहर लगा दी। तो... अब क्या करें, कैसे बताए कि रूप का जादू वही है जो मिस वर्ल्ड और उन दिनों के न्यूड पिक सेशन में था। सो अब तक के सबसे कम ( सार्वजनिक) कपडों में बर्लिन में फोटो सेशन करती नजर आईं.. क्या पता कल वे ही इसे इश्यू बनवा दें और पिंक पैंथर बगैर प्रमोशन के इतना नाम तो कमा ही जाए कि घोर पिटी के टैग और घाटे से बाहर आ जाए, ताकि आगे गुंजाइश बनी रहे खैर... देखते चलिए वक्त के इम्तिहान अभी और बाकी हैं। दुकानें बहुत हैं बच के चलें... समझदारी ओवरफ्लो हो तो अपनी भी सजा लें... टेपे हर कैटेगिरी में मिलते हैं, चाहिए बस एक ढंग का दुकानदार... जय हो... जय हो
Monday, December 1, 2008
बिल्कुल ठीक बोला, कुत्तों बाहर निकलो...
ये नेता न शहीद के घर जाने के काबिल हो न सदन बैठने के...
मुंबई में आतंकी हमले को अपने सीने पर झेल कर देश की आर्थिक राजधानी को चैन बख्शने वाले शहीदों की चिता की राख भी ठंडी नहीं पडी है और कि नेताओं के गंदे दिमाग में इस आग में अपनी रोटिंयां सेंकने के बेशर्म आइडिए बयानों की शक्ल में बाहर आने लगे हैं। मुंबई में शहीद हुए एनएसजी कमांडो मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के घर जो कुछ हुआ वह इसकी बानगी भर है। सोमवार को केरल के खिसियाए मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंद ने सोमवार को एक निजी चैनल पर कहा मेजर संदीप के पिता को यह सोचना चाहिए था कि हम यहां पर सहानुभूति जताने आए हैं अगर उनके बेटे ने देश के लोगों की रक्षा के लिए अपनी जान कुर्बान नहीं की होती तो उनके घर कोई कुत्ता भी नहीं आता। उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री शहीद उन्नीकृष्णन के घर पर सहानुभूति प्रदर्शित करने गये थे, लेकिन उन्नीकृष्णन के पिता ने क्रोध में उन्हें बाहर निकलो कुत्तो कहकर भगा दिया था। अच्युतानंदन की मूर्खताभरी चालकी इसी से नजर आती है कि अगर उन्हें या उनके मंत्रीमंडल को शहीद परिवार की इतनी सच्ची फिक्र थी तो वे तीन दिन तक क्या कर रहे थे, जबकि मेजर की अंत्येष्टि भी हो चुकी थी। हकीकत तो यह है कि जब मीडिया ने उनकी घरघुस्सु घटिया मानसिकता को उजागर किया और उन्हें पता चला कि शहीद के घर जा कर भी इमेज बिल्डिंग हो सकती है तो वह मना करने के बावजूद पिछले दरवाजे से घुसने में भी बाज नहीं आए... खैर हुआ वही जिसकी आशंका था बहादुर बेटे के बाप ने पूजा स्थल को कुत्तों से चैक कराने वाले मौकापरस्त को बता दिया कि उनकी औकात एक आम आदमी के लिए क्या है। जब सरेआम बेइज्जती हुई तो वे बदला लेने पर उतारू हो गए और उन्नीकृष्णन के लिए कहा कि मेजर उनके बेटे नहीं होते तो कोई कुत्ता भी उनके घर झांकने नहीं जाता। इसका एक मतलब तो यह है कि सामान्यजन कुत्ते हैं और दूसरा यह कि किसी सामान्य आदमी के घर जाने वाले कुत्ते हैं।
घटियापन के दूसरे महान धार्मिक चित्र हैं हिंदुवादी मुखौटाधारी भाजपा के सेक्युलर मास्क मुख्तार अब्बास नकवी। वो पाकिस्तान को गरिया कर अपनी पार्टी को लाभ पहुंचाने की इस अंदाज में करते हैं कि जैसे मुस्लिम हो कर पाक को नापाक बताने से देश और जनता पर बडा भारी अहसान कर रहे हों। इसी चक्कर में कश्मीर के प्रदर्शनों और मुंबई के प्रदर्शनों में तुलना करते वक्त वो बोल बैठे जो किसी को सहन नहीं हो सकता। आतंक के सामने नाकाम रहने और घुटने टेकने वाले नेताओं की खाल उधेडने वाले प्रदर्शन पर उन्होंने एक टीवी चैनल से कहा कि मुंबई में नेताओं के प्रति जो गुस्से की बात कही जा रही है वह लिपिस्टिक, पाउडर लगा कर, सूट पहन कर किया जा रहा दिखावा मात्र है। यह मुद्दा बदलने की कोशिश है। नकवी ने जनता को निशाना बनाते हुए कहा कि यह पता लगाया जाना चाहिए कि लिपस्टिक-मेकअप लगाए हुए वे महिलाएं और सूट-बूट पहने वे पुरुष कौन थे, तो पश्चिमी सभ्यता के अनुसार सरकार विरोधी प्रदर्शन कर रहे थे। हास्यास्पद बात यह है कि इस दौरान स्वयं नकवी सूट-बूट पहने हुए थे।
मुंबई में आतंकी हमले को अपने सीने पर झेल कर देश की आर्थिक राजधानी को चैन बख्शने वाले शहीदों की चिता की राख भी ठंडी नहीं पडी है और कि नेताओं के गंदे दिमाग में इस आग में अपनी रोटिंयां सेंकने के बेशर्म आइडिए बयानों की शक्ल में बाहर आने लगे हैं। मुंबई में शहीद हुए एनएसजी कमांडो मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के घर जो कुछ हुआ वह इसकी बानगी भर है। सोमवार को केरल के खिसियाए मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंद ने सोमवार को एक निजी चैनल पर कहा मेजर संदीप के पिता को यह सोचना चाहिए था कि हम यहां पर सहानुभूति जताने आए हैं अगर उनके बेटे ने देश के लोगों की रक्षा के लिए अपनी जान कुर्बान नहीं की होती तो उनके घर कोई कुत्ता भी नहीं आता। उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री शहीद उन्नीकृष्णन के घर पर सहानुभूति प्रदर्शित करने गये थे, लेकिन उन्नीकृष्णन के पिता ने क्रोध में उन्हें बाहर निकलो कुत्तो कहकर भगा दिया था। अच्युतानंदन की मूर्खताभरी चालकी इसी से नजर आती है कि अगर उन्हें या उनके मंत्रीमंडल को शहीद परिवार की इतनी सच्ची फिक्र थी तो वे तीन दिन तक क्या कर रहे थे, जबकि मेजर की अंत्येष्टि भी हो चुकी थी। हकीकत तो यह है कि जब मीडिया ने उनकी घरघुस्सु घटिया मानसिकता को उजागर किया और उन्हें पता चला कि शहीद के घर जा कर भी इमेज बिल्डिंग हो सकती है तो वह मना करने के बावजूद पिछले दरवाजे से घुसने में भी बाज नहीं आए... खैर हुआ वही जिसकी आशंका था बहादुर बेटे के बाप ने पूजा स्थल को कुत्तों से चैक कराने वाले मौकापरस्त को बता दिया कि उनकी औकात एक आम आदमी के लिए क्या है। जब सरेआम बेइज्जती हुई तो वे बदला लेने पर उतारू हो गए और उन्नीकृष्णन के लिए कहा कि मेजर उनके बेटे नहीं होते तो कोई कुत्ता भी उनके घर झांकने नहीं जाता। इसका एक मतलब तो यह है कि सामान्यजन कुत्ते हैं और दूसरा यह कि किसी सामान्य आदमी के घर जाने वाले कुत्ते हैं।
घटियापन के दूसरे महान धार्मिक चित्र हैं हिंदुवादी मुखौटाधारी भाजपा के सेक्युलर मास्क मुख्तार अब्बास नकवी। वो पाकिस्तान को गरिया कर अपनी पार्टी को लाभ पहुंचाने की इस अंदाज में करते हैं कि जैसे मुस्लिम हो कर पाक को नापाक बताने से देश और जनता पर बडा भारी अहसान कर रहे हों। इसी चक्कर में कश्मीर के प्रदर्शनों और मुंबई के प्रदर्शनों में तुलना करते वक्त वो बोल बैठे जो किसी को सहन नहीं हो सकता। आतंक के सामने नाकाम रहने और घुटने टेकने वाले नेताओं की खाल उधेडने वाले प्रदर्शन पर उन्होंने एक टीवी चैनल से कहा कि मुंबई में नेताओं के प्रति जो गुस्से की बात कही जा रही है वह लिपिस्टिक, पाउडर लगा कर, सूट पहन कर किया जा रहा दिखावा मात्र है। यह मुद्दा बदलने की कोशिश है। नकवी ने जनता को निशाना बनाते हुए कहा कि यह पता लगाया जाना चाहिए कि लिपस्टिक-मेकअप लगाए हुए वे महिलाएं और सूट-बूट पहने वे पुरुष कौन थे, तो पश्चिमी सभ्यता के अनुसार सरकार विरोधी प्रदर्शन कर रहे थे। हास्यास्पद बात यह है कि इस दौरान स्वयं नकवी सूट-बूट पहने हुए थे।
Monday, November 24, 2008
साध्वी के हौसले को सलाम... कहां मर गए मानवाधिकार वाले?
साध्वी के सम्मान के मदॆन की खबरें लगातार आ रही थीं, लेकिन सिवाए मौकापरस्त नेताओं के किसी की चूं तक सुनाई नहीं दे रही थी। कुछ एक ब्लागरों ने फ्रंट संभाला तो कुछ संत-संन्यासियों ने भी साहस का परिचय देने की कोशिश की, लेकिन चार राज्यों के चुनाव और राजनीति के नक्कारखाने में कोई आवाज पुरजोर नहीं हो पाई। सोमवार को जब साध्वी का यह आरोप सामने आया कि एटीएस ने उनके कपड़े उतारने की धमकी दी और गालियों से बात कर और बेल्ट-जूतों से मारा तो लगा कि एटीएस की बेकरारी बेसबब नहीं है। आखिर नतीजों तक पहुंचने और मकोका लगाने की इस जल्दी का कोई तो राज होगा। दरअसल मकोका लगने के बाद जो समय बचेगा वह लोकसभा चुनाव के पास खत्म होगा, यानी दो चुनाव एक दांव... फिर भी साध्वी ने जो धैयॆ दिखाया है वह काबिल-ए-तारीफ है, लेकिन मैं जानना चाहता हूं कि कहां मर गए वो मानवाधिकार के पुरोधा जो तथाकथित प्रगतिशीलता के नाम पर चाहे जिस मुद्दे पर स्थायी भाव से टिप्पणी और प्रदशॆन करते नजर आते रहे, शायद कम्युनिस्टों की आवाज बंद हो गई है और कांग्रेसीजनों को इसमें किसी प्रकार की बुराई नजर नही आ रही होगी। भाजपाई इसे पोलेटिकल मुद्दे की तरह सावधानी से संभाल कर चल रहे हैं कि मौका पड़े तो छुटकारा पाया जा सके, लेकिन जेल संहिता, मानवाघिकार, धमॆ, कानून और नैतिककी की बात करने वाले किस कोने में जा छिपे हैं, लग तो यूं रहा है जैसे उनके आकाओं ने गायब होने का फरमान सुना दिया हो।या सबके सब एक साथ मर गए हों ॥ खैर कितनी देर और दिन तक मरे हुए जमीर के लोगों का मुरदा देश सोता रहेगा... सारे लोग जागे न जागें कुछ लोग भी जाग गए तो.. यकीन जानना न्याय होगा... साध्वी के साथ भी और मालेगांव धमाके के पीडितों के साथ भी..लेकिन अगर कोई नहीं बच पाएगा तो वह होंगे इस कांड के नाम पर फिजाओं में जहर घोलने वाले.. चाहे फिर वह अफसर हों या परदे के पीछे खेल दिखाने वाले नेता... नतीजे बेशक जो चाहे हों, लेकिन आदमियत तभी बची रहेगी जब इतने गंभीर आरोपों वाला कांड मीडिया की टीआरपी और रीडरशिप का फंडा न बने और न ही नौकरशाही और नेतृत्व उसका मनचाहा इस्तेमाल कर सके।
Wednesday, November 5, 2008
काले प्रेसिडेंट के ताज में मुशिकलों के मोती
ओबामा ने जीत दजॆ की। अच्छा लगा। अमेरिका में पहले अश्वेत प्रेसिडेंट होने के गौरव ने नस्लभेदी अमेरिका में जीतते नजर आते लोकराज में बेशक एक नई हवा को बहने का रास्ता दिया हो, लेकिन असली इम्तहान बाकी है। पिछले एक दशक से कई समस्याओं से जूझते अमेरिका में खोखली होती अथॆ व्यवस्था, बेलगाम नई पीढ़ी और अपने आप को बचाए रखने के लिए दुनिया पर मजबूरी की चौधराहट इस देश को किस दिशा में ले जाएगी, अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। बहरहाल बराक ओबामा जाहिर तौर पर नौसिखिए हैं और संकट के बादल गहरे तब डूबते अमेरिका की असफलताओं का ठीकरा कहां फूटेगा यह समझना आसान है। वैसे भी डायलेसिस पर चल रही अथॆवव्यस्था को जिंदा रखने के लिए अमेरिका पूंजीवाद का पल्लू छोड़ कर समाजवाद और साम्यवाद जैसी लगती एक नई व्यवस्था की तरफ एक कदम बढ़ा चुका है और बैंक से लेकर व्यापार और बीमा जैसे सेक्टर को वह सभी यथा संभव सहायता दे रहा है। लेकिन बाजारों से कैश फ्लो सूख रहा है और कजॆ वसूली न होने से बैंकों की सांसे उखड रही हैं। शायद यही कारण है कि ओबामा आउटसोसिॆग जैसी चीजों में भारत आदि को रोकने का एलान कर रहे हैं, पर यह वैसी ही कोशिश है जैसे कोई यह समझे की ओस की बूंदों से जंगल की आग रुक जाएगी। वैसे भी ओबाम नेता कम मदारी ज्यादा नजर आते हैं, और लोगों को बरगलाने में भारतीय नेताओं से भी आगे नजर आते हैं, इसिलए कभी हनुमान की प्रतिमा तो कभी गांधी की तस्वीर बेचारे भारतीय इतने में ही फूल नहीं समां रहे हैं। ओबाम ने इस प्रकार के कई टोटके लगभग सारी प्रभावशाली कम्युनिटिज को बहलाने में अपनाए। उन्हें सफलता भी मि्ली लेकिन इसकी कीमत क्या होगी और कौन चुकाएगा अभी हिसाब होना बाकी है।
Sunday, October 12, 2008
पूंजीवाद अंत की ओर गरीबों को पैसा दो तो बचेगी जान
ग्लोबलाइजेशन में जो कुछ हुआ,वह न तो अप्रत्यािशत है और न ही अचानक। वल्डर् इकोनामी को कागज से डालरों से कंटर्ोल करने वाले सोच रहे थे पूंजीवाद को ग्लोबलाइजेशन का चोला पहना कर दुिनया को लूटते रहेंगे और िजस देश या आदमी में ये ताकत आ जाएगी िक वह मुकाबला कर सके उसे लूट का िहस्सेदार बना लेंगे और अपने ही लोगों से दूर कर देंगे, लेिकन एसा हो न सका... और अब ये हाल है िक अमेिरका के अस्सी फीसदी लोग अवसाद का िशकार हो गए है। सरकार भी उद्योगों को बचाने के िलए हर नागरिक को साठ लाख का कर्जदार बना कर 110 अरब डालर की सहायता बैिकंग और उद्योग जगत को दे चुकी है, लेकिन हालत है कि पतली होती जा रही है। एक दुनिया एक करंसी का सपना बिखर गया है, पूंजीवाद का अंत शुरू हो गया है,जालिम जमाने को संदेश मिल चुका है कि अगर गरीबों के हाथों के रुपए धन्ना सेठों की तिजौरियों में बंद किए तो बाजार उठ जाएगा और घर लुट जाएगा। देवेश कल्याणी
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