Friday, January 22, 2016

दबाव समूहों के नवसामंत

 हम प्रभावशाली दबाव समूहों के नवसामंतों के युग में जी रहे हैं जो आपके निर्णयों को नियंत्रित करने के लिए कुछ भी रचने को बेकरार रहते हैं। इसे स्थापित करता है  जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में फिल्म निर्माता करन जौहर का 'इंटॉलरेन्स' के मुद्दे पर उठाया सवाल।  करन ने कहा, 'आप अपनी जिंदगी के बारे में बोलने पर भी जेल में जा सकते हैं. तो फिर अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब ही क्या है? इसका मतलब तो यह हुआ कि अभिव्यक्ति की आजादी हमारे देश में सबसे बड़ा मजाक है और लोकतंत्र दूसरा बड़ा मजाक करन ने ये बात बेशक फिल्मी दुनिया के संदर्भ में कही होगी, लेकिन अगर आप इसे रोहित वेमुला केस से जोड़ कर देखेंगे तो आप पाएंगे कि जो बात मैंने कल आर्टिकल में लिखी है ये उसके समर्थन का एक अलग सा चेहरा है... रोहित की जान ही इसलिए गई कि उसने अभिव्यक्ति की आजादी को इस्तेमाल करने की कोशिश की थी।

Thursday, January 21, 2016

अनसुना कर ‘औकात’ बताना छोड़िए...

किसी मुद्दे को खत्म करने की ऐसी सियासी तड़प शायद ही पहले कभी देखी गई होगी। मंत्रियों और कुलपति को भाजपा की क्लीनचिट के तुरंत बाद मानव संसाधन मंत्री स्मृति इरानी ने अपने बयान से यह स्थापित करने की कोशिश की है कि रोहित वेमुला की खुदकुशी की वजह उसका दलित होना नहीं था। इस प्रकरण की कड़ियों को तथ्यों और जातियों से परिभाषित करने में  ऐसा पूर्वाग्रही एकालाप सुनाई दिया जो सोलहवीं- सत्रहवीं शताब्दी की मानसिकता का परिचय देता है। बंधुत्व,समानता या प्रजा जैसे शब्द और वर्ग जरूरतों और लक्ष्यों के मुताबित इस्तेमाल किए जाते हैं, जिसमें सुनवाई और न्याय, प्रभावशाली दबाव समूह के कारण नौटंकी बन कर रह जाता है। अनसुनी से ध्वनित होता है कि सुनवाई के लिए जिस हैसियत और औकात की जरूरत है वह तुम्हारे वर्ग की नहीं है।
रोहित वेमुला के लिए खुदकुशी आसान विकल्प था क्योंकि वह व्यवस्था से लड़ रहा था और उस पर जिम्मेदारियों का बोझ भी था। अगस्त 2015 की जिस फिल्म ‘मुजफ्फर नगर अभी बाकी है’ के प्रदर्शन को लेकर दलित बनाम दलित विरोधी संघर्ष शुरू हुआ उसमें कोई दलित मांग नहीं थी। बल्कि यह दलित छात्रों के समुदाय द्वारा अपने अधिकारों को स्थापित करने की चेष्ठा थी। यह ऊंचे सुर में बराबरी और वंचित एकता का उद्घोष था। इसे खामोश करने के लिए इतने स्तरों पर निष्ठुरों का पूरा वर्ग एकजुट हो कर इस जिद और जुनून को दबाने में लामबंद हुआ कि उस अंधे कुंए से आवाज बाहर लाने के लिए वेमुला को खुदकुशी करना पड़ी। हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी ने रोहित और उनके चार साथियों को न केवल होस्टल से निकाला बल्कि यूनिवर्सिटी में कई जगह जाना भी प्रतिबंधित कर दिया। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने इसमें मंत्री बंडारू दत्तात्रेय को यह समझाया कि इन अंबेडकरवादियों की गतिविधियां राष्ट्रद्रोही हैं, जिसे उन्होंने बकायदा पत्र के माध्यम से मानव संसाधन मंत्रालय को भेज दिया बगैर उनके संगठन का पक्ष जाने, इस पर मानव संसाधन मंत्रालय की अति सक्रियता कुछ ऐसी कि छह सप्ताह में पांच पत्र लिखे गए और आरोपित दलित छात्रों को आरोप मुक्त करने वाले कुलपति को बदलते ही नए कुलपति ने उन्हें नैसर्गिक न्याय से वंचित कर सीधी सजा सुना दी। न्याय के लिए  हाईकोर्ट तक उनकी हर पुकार अनसुनी रही और दलितों के नाम पर दुकानदारी करने वाले बड़े लोग खामोश और छोटे बेखबर बने रहे। अकेले लड़ने से हारे रोहित के जान देने के बाद सोशल मीडिया ने स्मृति को मनु स्मृति रानी बताया तो उनके बयान को झूठा बताते हुए दस दलित प्रोफेसरों ने इस्तीफे की पेशकश की है। लेकिन बड़े-बड़े दलित नरसंहारों और उसके बाद किसी को भी सजा न होने पर खामोशी रहने वाले अन्य जातीय या सामाजिक संगठन अब भी मूकदर्शक हैं।
ये अनदेखी और अनसुनी पिछले दस-पंद्रह सालों में लगातार बढ़ी है।  सामुदायिकता और सामुहिकता के नाम पर सबसे वंचित समुदायों के वास्तविक वंचितों के सवाल गुम होते जा रहे हैं, लेकिन अत्याचार और भेद का आधार वही जन्म है, जिसका जिक्र अपने सुसाइड नोट में रोहित वेमुला ने किया है कि मेरी जाति की मेरी मौत का कारण है... रोहित के सुसाइट नोट के कुछ वाक्य तो इस परिप्रेक्ष्य में दहला देने के लिए पर्याप्त हैं। ...मैं अपनी आत्मा और देह के बीच खाई को बढ़ता हुआ महसूस कर रहा हूं... एक इंसान की कीमत , उसकी पहचान एक वोट एक संख्या, एक वस्तु में सिमट कर रह गई है। कोई भी क्षेत्र हो, अध्ययन में, राजनीति में, मरने में जीने में कभी एक व्यक्ति को उसकी बुद्धिमता से नहीं आंका गया। मेरा जन्म मेरे लिए एक घातक हादसा है... मैं अतीत का एक शुद्र बच्चा... ये ऐसे सवाल हैं जिन्हें आवाज देने की कीमत रोहित ने अपनी जान से चुकाई है, लेकिन ये एक मामला है ऐसे कितने रोहित और कितने मामले हैं जिनमें अन्याय और भेद का आधार जन्म है।
बेशक ये कहा जाता हो कि ऊंचे आर्थिक या बौद्धिक वर्ग में प्रवेश करते ही समाज उदार हो जाता है और उसकी वर्जनाएं शिथिल हो जाती है, मगर ये आभासी लगता है। जब मध्यप्रदेश में हाल ही में आंदोलित हुए दलित समुदाय के दो आईएएस रमेश थेटे और शशि कर्णावत की व्यथा भी रोहित जैसी लगती है। मूल रूप से उनकी भी शिकायत यही है कि कोई ऐसा फोरम नहीं है,जहां तसल्लीबख्श और त्वरित सुनवाई हो। थेटे का कहना उन्हें चिन्हित कर ऐसे आरोपों में खींचा जा रहा है, जिसमें अन्य समुदाय के आरोपियों को नजरअंदाज कर दिया गया है, कुछ ऐसा ही आरोप शशि कर्णावत का भी है। सेवानिवृति के चंद घंटों पहले अपने घर पर विभागीय जांच का नोटिस चस्पा होने का रंज झेलने वाले वरिष्ठ आईएएस के सुरेश भी दलित समुदाय से थे, जिन्हें नियमों की रोशनी में उन्हें पदोन्नित दी जा सकती थी मगर मिली नोटिस की सूचना। समाज की मुख्यधारा में दलित बहुत ऊंचे मकामों तक भी पहुंचे हैं... यहां भेद न होने और कम होने का आभास-आंकलन भी है। इनमें समूह की पहचान से बाहर रहने और सामान्य होने के दबाव से ऐसा वर्ग बन गया है जो बड़े सवालों पर भी मौन है। असंगठित होने के कारण शेष लोग और उनके छोटे-मोटे संगठन अपनी जरूरतों में उलझे रहते हैं। ऐसे में सुनवाई की सटीक व्यवस्था लगातार टलते फैसले जैसी हो गई है जिसमें आज के प्रावधान अंतरिम व्यवस्था लगते हैं, औपचारिक सुनवाई से प्यास बुझने की बजाए ‘औकात’ पता चलती है। अगर उचित व्यवस्था हो तो ऐसे सवालों का वक्त रहते जवाब खोजा जा सकता है,मगर दलित सवाल तो अब हाशिए से भी बाहर खिसकने लगे हैं। जिनकी अनसुनी बड़ी गूंज बन सकती है।

Tuesday, September 21, 2010

ख्वाब और खुदा...

दिन भर ख्वाब बुनता हूं
रात भर जागता रहता हूं

मंजिलें दौड़ती रहती हैं
मैं भी भागता रहता हूं

न जाने कब मिले मौका
अब भी ताकता रहता हूं

फस्ले ईमां बोई थी मैंने
दुख ही काटता रहता हूं

खुदा अब खुद ही चले आना
मैं खिड़की से झांकता रहता हूं

Tuesday, September 7, 2010

तो कौन जिम्मेदार होता....

भोपाल में सोमवार को भाजपाई आयोजन ने ट्रैफिक व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया और शहर भर परेशान ... ऐसे में सवाल यह है कि जब तय था कि इतने लोग और गाड़ियां आएंगी तो पुलिस के बड़े अधिकारियों और भाजपा के काडर लीडरों ने कोई व्यवस्था क्यों नहीं की... क्या इसके लिए दोषी नहीं कहना चाहिए... इस भीड़भाड़ में बाबरी फैसले और आतंकी टारगेट ...के चलते संवेदनशील भोपाल में कुछ हो जाता तो कौन जिम्मेदार होता....

Friday, September 3, 2010

आतंक के रंग से राजनीति के कैनवास पर कलाकारी....

एक साहब हैं, पद और कद देश की अस्मिता और आतंरिक शांति के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण, नाम है पी चिदम्बरम... उन्होंने आतंक में आस्थाओं से जुड़ा एक रंग खोजा और पार्टी पदाधिकारी या मंत्री नहीं वरन् औसत बुद्धी से नीचे के व्यक्ति की तरह रेंक पड़े यह तो भगवा है... उनसे ज्यादा महान वे निकले जो विरोध में उठ खड़े हुए... उन्हें यह हमला सारे धर्म पर नजर आया.... लगे चिल्लाने अरे लोगों देखो ये हमें गाली दे रहा है आओ राम के नाम पर छले थे तो क्या अब भगवा पर एकजुटहो जाओ.... बहुत साल हो गए हैं सत्ता सुंदरी रूठी है तुम मान जाओ तो वह भी मान जाएगी... वरना सोनिया तो फिर अध्यक्ष बन ही गई हैं.... ऐसा ही रहा तो राहुल भी प्रधानमंत्री हो जाएगा और हमारा वनवास और लंबा हो जाएगा.... आगे पता नहीं क्या हो।
दरअसल कई सवाल शेष हैं कि यह प्रतिआतंक कहां से आया और इसके पोषण के पीछे कौन है और क्यों हैं... लेकिन इसके बहाने समाज का धुव्रीकरण करने वाले जाने पहचाने हैं और उनकी नीति नियत भी साफ दिख रही हैं। कांग्रेस-भाजपा दोनों अपने-अपने वोट बैंक बनाएगी और अपने ही लोगों को एक दूसरे से डराएगी.... यानी खेल साफ है इंतजार रहेगा सिर्फ स्कोर का... बगैर यह सोचे कि इससे देश में विघटन की लहर उठी तो उसके सैलाब में क्या-क्या आ जाएगा। वैसे लोगों को पता होना चाहिए कि भगवा कोई धर्म नहीं बलि्क सनातन धर्म की जीवनशैली का अहम हिस्सा है पूरा का पूरा धर्म नहीं इसलिए हो सके तो इस शब्द का इस्तेमाल करने वालों और विरोध करने वालों दोनों से बच कर रहना क्योंकि ये पहले देश को उकसाएंगे, दंगे कराएंगे फिर घरों को जलाएंगे और उसी आग पर अपनी राजनीति की रोटी पकाएंगे।

Saturday, August 14, 2010

ये आजादी है या गुलामी... सवाल है वल्दियत...

जन्मभूमि जननी और स्वर्ग से महान है। मेरा देश- मेरी धरती मेरी मां है... फिर राष्ट्रपिता और राष्ट्रपति जैसे शब्दों का क्या मायना है? अगर मां कहलाने वाली हमारी मातृभूमि का अस्तित्व प्राकृतिक, भौगोलिक और सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से युगों से कायम है तो क्या हर पांच साल में नया पति (राष्ट्रपति) और कथाकथित आजादी के बाद पिता (राष्ट्रपिता) का क्या औचित्य और इसकी क्या जरूरत... वह भी उस स्थिति में जब प्रेसीडेंट के अनुवाद में राष्ट्राध्यक्ष और आधुनिक भारत के संदर्भ में आधुनिक राष्ट्र के मूलाधार, कर्णधार, शिल्पकार जैसे शब्द मौजूद हैं...

Monday, February 1, 2010

मुंबई की आड में महंगाई पर समर्पण, राष्ट्र से ऊपर महाराष्ट्र

पहली फरवरी 2010 यानी सोमवार बयानों के नाम रहा। अगर गौर से देखा जाए और एक साथ आए बयानों को साथ रख कर देखें तो साफ हो जाएगा कि राजनीति की नूरा कुश्ती में कैसे आम आदमी के हितों से खिलवाड़ किया जा सकता है। महंगाई बनाम मुंबई में कुछ यूं बयान आए कि महंगाई गौण और महाराष्ट्र का मुद्दा महान हो.. इस कुछ न किया गया तो न जाने क्या हो जाएगा। ठाकरे परिवार की राजनीति बिसात सारे राष्ट्र के हित से बड़ी प्राथमिकता हो गई, गोया सरकार ने आज कुछ नहीं किया तो चार चिरकुटों की फौज वाले ये गुंड़ो का गिरोह मुंबई पर कब्जा कर सबको बाहर फेंक देगा... देश का हिस्सा न हुआ भिखारियों के हाथ में फंसी रोटी हो गई जिसे जो चाहेगा लूट लेगा। दरअसल इस विषय पर बात से पहले जरूरी हैं कि इस विषय पर सोमवार को आए बयानों को समझ लिया जाए।

प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने सोमवार को साफ कर दिया सरकार के पास न तो खाद्य वस्तुओं की पर्याप्त उपलब्धता है और न ही वे महंगाई को नियंत्रित करने में सक्षम हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राज्यों के मुख्य सचिवों की बैठक में कहा कि पिछले कुछ समय से, यह गलत धारणा रही है कि खाद्य वस्तुओं की उपलब्धता पर्याप्त है और चिंता जैसी कोई बात नहीं है। इसी प्रकार, कई लोगों का मानना था कि हम कीमतों को नियंत्रित करने में सक्षम हैं। लेकिन बढ़ती जनसंख्या और लोगों के उच्च जीवन स्तर को देखते हुए खाद्य वस्तुओं की आपूर्ति बढ़ाने की जरूरत है। गौरतलब है कि जिस वक्त यह बयान आया तभी चीनी, तेल, दूध, चावल आदि के दाम और बढऩे की बात हो रही है। यानी कुछ हो गया तो फिर न कहना...

उधर बाल ठाकरे और राज ठाकरे की मुंबइया मनमानी पर कान में उंगली डाले बैठी केंद्र सरकार को आखिर सोमवार को यह हंगामा सुनाई दिया और गृह मंत्री ने सख्त रुख अपनाते हुए ऐलान किया कि मुंबई में सभी भारतीयों की है और सभी यहां रहने और काम करने के लिए स्वतंत्रत हैं। शिव सेना की ''मुंबई मराठियों कीÓÓ दलील को घातक सिद्धांत बताते हुए चिदम्बरम ने कहा कि हम शिव सेना के मत को खारिज करते हैं। मुंबई पूरे भारत की है और सभी भारतीय मुंबई में रहने और रोजी कमाने के लिए स्वतंत्र हैं। चिदंबरम ने कहा कि महाराष्ट्र सरकार किसी भी स्थिति से निपटने में सक्षम है और अगर उसे किसी मदद की जरूरत हुई तो केन्द्र उपलब्ध कराएगा।

इसी दिन अचानक राहुल गांधी भी जो भोपाल में कह चुके थे कि सरकार महंगाई नियंत्रण जल्द कर लेगी वह भी बोल पड़े कि मुंबई सबकी है। इतनी ही नहीं वह एक कदम आगे बढ़ कर बोले कि मुंबई को आतंक से निजात दिलाने वाले एनएसजी कमांडो बिहार यूपी के थे। हालांकि उन्होंने यह सोर्स नहीं बताया कि उन्हें कैसे पता चला कि उस फोर्स में कहां के लोग थे, क्योंकि सामान्यत: यह गुप्त रहता है कि ऐसे मिशन में कौन से कमांडो शामिल थे और उनकी पहचान क्या है।

राष्ट्रीय स्वयं सेवा संघ द्वारा महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों को सुरक्षा देने की बात कहने पर भाजपा ने भी संघ के सुर में सुर मिला दिया। रविवार को इस मुद्दे पर भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने कहा था कि वे पहले संघ प्रमुख से बात करेंगे। लेकिन सोमवार को उन्होंने खुलकर कहार कि उत्तर भारतीयों को सुरक्षा देने संबंधी संघ के मत से सहमत हैं। गडकरी ने कहा कि देश के सभी क्षेत्रों के भारतीयों को भारतीय सीमा के भीतर कहीं भी रहने का अधिकार है।



महंगाई बनाम मुंबई मामले को लेकर चंद सवाल हैं जिनके जवाब खोजने जरूरी हैं।

1 महंगाई पर बहलाती रही सरकार को अचानक सोमवार को क्या हो गया कि उसने यूं आनन-फानन हाथ खड़े कर दिए। क्या आम और गरीब आदमी को कीमतों की चक्की में पीसने का इरादा है या पूंजी तंत्र के हाथों देश के बिक जाने की अनाधिकृत घोषणा की गई है।


2 क्या हमारी व्यवस्था और कानून वाकई इतने लाचार हैं कि आम आदमी की जीवन रक्षक खाद्य वस्तुओं के दाम नियंत्रित नहीं किए जा सकते। या बाजार तंत्र का दबाव नियंत्रण से बाहर हो गया है। साथ ही देश को आपदा युद्ध, प्राकृतिक या आर्थिक आदि से बचाने का सिस्टम नष्ट कर दिया गया है।


3 क्या मुंबई मामले पर ठाकरे परिवार और उनके समर्थकों पर नकेल नहीं डाली जा सकती। क्या वहां कानून उनकी बांदी है? या सरकार खुद इस मुद्दे को किसी बड़े इश्यू को दबाने के लिए बढऩे दे रही थी, ताकि सही समय पर उसका उपयोग किया जा सके।