अनसुना कर ‘औकात’ बताना छोड़िए...
किसी मुद्दे को खत्म करने की ऐसी सियासी तड़प शायद ही पहले कभी देखी गई होगी। मंत्रियों और कुलपति को भाजपा की क्लीनचिट के तुरंत बाद मानव संसाधन मंत्री स्मृति इरानी ने अपने बयान से यह स्थापित करने की कोशिश की है कि रोहित वेमुला की खुदकुशी की वजह उसका दलित होना नहीं था। इस प्रकरण की कड़ियों को तथ्यों और जातियों से परिभाषित करने में ऐसा पूर्वाग्रही एकालाप सुनाई दिया जो सोलहवीं- सत्रहवीं शताब्दी की मानसिकता का परिचय देता है। बंधुत्व,समानता या प्रजा जैसे शब्द और वर्ग जरूरतों और लक्ष्यों के मुताबित इस्तेमाल किए जाते हैं, जिसमें सुनवाई और न्याय, प्रभावशाली दबाव समूह के कारण नौटंकी बन कर रह जाता है। अनसुनी से ध्वनित होता है कि सुनवाई के लिए जिस हैसियत और औकात की जरूरत है वह तुम्हारे वर्ग की नहीं है।
रोहित वेमुला के लिए खुदकुशी आसान विकल्प था क्योंकि वह व्यवस्था से लड़ रहा था और उस पर जिम्मेदारियों का बोझ भी था। अगस्त 2015 की जिस फिल्म ‘मुजफ्फर नगर अभी बाकी है’ के प्रदर्शन को लेकर दलित बनाम दलित विरोधी संघर्ष शुरू हुआ उसमें कोई दलित मांग नहीं थी। बल्कि यह दलित छात्रों के समुदाय द्वारा अपने अधिकारों को स्थापित करने की चेष्ठा थी। यह ऊंचे सुर में बराबरी और वंचित एकता का उद्घोष था। इसे खामोश करने के लिए इतने स्तरों पर निष्ठुरों का पूरा वर्ग एकजुट हो कर इस जिद और जुनून को दबाने में लामबंद हुआ कि उस अंधे कुंए से आवाज बाहर लाने के लिए वेमुला को खुदकुशी करना पड़ी। हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी ने रोहित और उनके चार साथियों को न केवल होस्टल से निकाला बल्कि यूनिवर्सिटी में कई जगह जाना भी प्रतिबंधित कर दिया। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने इसमें मंत्री बंडारू दत्तात्रेय को यह समझाया कि इन अंबेडकरवादियों की गतिविधियां राष्ट्रद्रोही हैं, जिसे उन्होंने बकायदा पत्र के माध्यम से मानव संसाधन मंत्रालय को भेज दिया बगैर उनके संगठन का पक्ष जाने, इस पर मानव संसाधन मंत्रालय की अति सक्रियता कुछ ऐसी कि छह सप्ताह में पांच पत्र लिखे गए और आरोपित दलित छात्रों को आरोप मुक्त करने वाले कुलपति को बदलते ही नए कुलपति ने उन्हें नैसर्गिक न्याय से वंचित कर सीधी सजा सुना दी। न्याय के लिए हाईकोर्ट तक उनकी हर पुकार अनसुनी रही और दलितों के नाम पर दुकानदारी करने वाले बड़े लोग खामोश और छोटे बेखबर बने रहे। अकेले लड़ने से हारे रोहित के जान देने के बाद सोशल मीडिया ने स्मृति को मनु स्मृति रानी बताया तो उनके बयान को झूठा बताते हुए दस दलित प्रोफेसरों ने इस्तीफे की पेशकश की है। लेकिन बड़े-बड़े दलित नरसंहारों और उसके बाद किसी को भी सजा न होने पर खामोशी रहने वाले अन्य जातीय या सामाजिक संगठन अब भी मूकदर्शक हैं।
ये अनदेखी और अनसुनी पिछले दस-पंद्रह सालों में लगातार बढ़ी है। सामुदायिकता और सामुहिकता के नाम पर सबसे वंचित समुदायों के वास्तविक वंचितों के सवाल गुम होते जा रहे हैं, लेकिन अत्याचार और भेद का आधार वही जन्म है, जिसका जिक्र अपने सुसाइड नोट में रोहित वेमुला ने किया है कि मेरी जाति की मेरी मौत का कारण है... रोहित के सुसाइट नोट के कुछ वाक्य तो इस परिप्रेक्ष्य में दहला देने के लिए पर्याप्त हैं। ...मैं अपनी आत्मा और देह के बीच खाई को बढ़ता हुआ महसूस कर रहा हूं... एक इंसान की कीमत , उसकी पहचान एक वोट एक संख्या, एक वस्तु में सिमट कर रह गई है। कोई भी क्षेत्र हो, अध्ययन में, राजनीति में, मरने में जीने में कभी एक व्यक्ति को उसकी बुद्धिमता से नहीं आंका गया। मेरा जन्म मेरे लिए एक घातक हादसा है... मैं अतीत का एक शुद्र बच्चा... ये ऐसे सवाल हैं जिन्हें आवाज देने की कीमत रोहित ने अपनी जान से चुकाई है, लेकिन ये एक मामला है ऐसे कितने रोहित और कितने मामले हैं जिनमें अन्याय और भेद का आधार जन्म है।
बेशक ये कहा जाता हो कि ऊंचे आर्थिक या बौद्धिक वर्ग में प्रवेश करते ही समाज उदार हो जाता है और उसकी वर्जनाएं शिथिल हो जाती है, मगर ये आभासी लगता है। जब मध्यप्रदेश में हाल ही में आंदोलित हुए दलित समुदाय के दो आईएएस रमेश थेटे और शशि कर्णावत की व्यथा भी रोहित जैसी लगती है। मूल रूप से उनकी भी शिकायत यही है कि कोई ऐसा फोरम नहीं है,जहां तसल्लीबख्श और त्वरित सुनवाई हो। थेटे का कहना उन्हें चिन्हित कर ऐसे आरोपों में खींचा जा रहा है, जिसमें अन्य समुदाय के आरोपियों को नजरअंदाज कर दिया गया है, कुछ ऐसा ही आरोप शशि कर्णावत का भी है। सेवानिवृति के चंद घंटों पहले अपने घर पर विभागीय जांच का नोटिस चस्पा होने का रंज झेलने वाले वरिष्ठ आईएएस के सुरेश भी दलित समुदाय से थे, जिन्हें नियमों की रोशनी में उन्हें पदोन्नित दी जा सकती थी मगर मिली नोटिस की सूचना। समाज की मुख्यधारा में दलित बहुत ऊंचे मकामों तक भी पहुंचे हैं... यहां भेद न होने और कम होने का आभास-आंकलन भी है। इनमें समूह की पहचान से बाहर रहने और सामान्य होने के दबाव से ऐसा वर्ग बन गया है जो बड़े सवालों पर भी मौन है। असंगठित होने के कारण शेष लोग और उनके छोटे-मोटे संगठन अपनी जरूरतों में उलझे रहते हैं। ऐसे में सुनवाई की सटीक व्यवस्था लगातार टलते फैसले जैसी हो गई है जिसमें आज के प्रावधान अंतरिम व्यवस्था लगते हैं, औपचारिक सुनवाई से प्यास बुझने की बजाए ‘औकात’ पता चलती है। अगर उचित व्यवस्था हो तो ऐसे सवालों का वक्त रहते जवाब खोजा जा सकता है,मगर दलित सवाल तो अब हाशिए से भी बाहर खिसकने लगे हैं। जिनकी अनसुनी बड़ी गूंज बन सकती है।