Tuesday, January 17, 2023

मर रहा है मीडिया

देश में मैनस्ट्रीम मीडिया मर रहा है... क्या अखबार, क्या न्यूज चैनल सब अस्ताचलगामी हैं... सामांतर मीडिया और सोशल मीडिया कभी विश्वसनीय रहे ही नहीं...  इन दिनों मीडिया का मूल रूप से ब्रेशवाश टूल की तरह इस्तेमाल हो रहा है । जिसे कारपोरेट और पालिटिकल पावर का गठजोड़ गवर्न कर रहा है। सूचना और समाचार विश्लेषण का माध्यम बनने वाला मीडिया मास कम्युनिकेशन की ताकत की बदलौत पालिटिकल माइंड मेकअप, ब्रेनवाश के साथ तथ्यों पर परदा डालते हुए नफरत-अलगाव और भ्रम फैलाने का हथियार बना हुआ है। इसका सबसे बड़ा शिकार दो कम्युनिटी हुई हैं, जिसमें पहले नंबर पर मुस्लिम और दूसरे पर दलित-आदिवासी हैं। दरअसल इस वर्ग का मैनस्ट्रीम मीडिया में प्रतिनिधित्व नहीं के बराबर है, शायद इसी वजह से मुझ तक सालों से ये बात मदद के लिए आती रही है कि हमारा ( मुस्लिम-दलित बहुजन) का अपना सशक्त मीडिया होना चाहिए।
इस छटपटाहट में कितना दम है केवल इस बात से समझा जा सकता है कि  देश भर में नफरती भाषणों की घटनाओं पर अंकुश लगाने और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग करने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही न्यायमूर्ति केएम जोसेफ और न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना की पीठ ने टीवी समाचार सामग्री पर नियामकीय नियंत्रण की कमी पर अफसोस जताते हुए नफरत फैलाने वाले भाषण को 'बड़ा खतरा' बताया है। साथ ही कहा है प्रिंट मीडिया के विपरीत, समाचार चैनलों के लिए कोई भारतीय प्रेस परिषद नहीं है।  कहा,मीडिया के लोगों को समझना चाहिए कि जिसके खिलाफ अभी भी जांच चल रही है और उसे बदनाम नहीं किया जाना चाहिए। हर किसी की गरिमा होती है।
अदालती चिंता के बीच मेरा मानना है अगर हालात ऐेसे ही रहे तो आने वाला वक्त कम्युनिटी मीडिया का होगा। उसका आकार और व्यहवार कैसा होगा ये भी वक्त और हालात तय करेंगे...
देवेश कल्याणी
9827205219

Thursday, January 31, 2019

मीडिया एक्सपोज, ब्रेनवॉश का नया टूल फिल्में 

 

काहे का बिग गन... वो तो साला दलाल है। डील मिले तो कुछ भी बेच सकता है... इथिक्स-विथिक्स चीज क्या है? ये शब्द देश की राजधानी दिल्ली के बड़े पत्रकार और मीडिया मैन कहलाने वाले एक नहीं कई लोगों के लिए जुमले की तरह पिछले कई सालों से इस्तेमाल हो रहे थे। सीन तब चेंज होने लगा जब छुटभैये तक रेटकार्ड में जगह पा गए और दर्शकों से लेकर पाठकों तक में सब एक्सपोज होने लगे। प्रायोजित खबरें - मुद्दों के पक्ष-विपक्ष में एकतरफा तेवर- कलेवर और भाषा  के बेखौफ इस्तेमाल ने उनकी साख को मटियामेट कर दिया... जिनके लिए उन्होंने अपना सब-कुछ  दांव पर लगाया, अब वे ही भाव गिराएंगे... इसकी बकायदा शुरुआत हो चुकी है... जरा गौर करेंगे तो सब साफ हो जाएगा। 
लोकसभा का चुनाव सम्मुख है और एक ही हफ्ते में चार ऐसी फिल्में थियेटर में धूम मचा रही हैं, जिनके पीछे का पॉलिटिकल एजेंडा आसानी से नजर आ जाता है... दक्षिणपंथी विचारधारा के राष्ट्रवाद को उरी द सर्जिकल स्ट्राइक और मणिकर्णिका से पोषण मिलेगा इससे कौन इनकार कर सकता है। यह सकारात्मक रूप से दर्शकों के माइंड मेकअप करने का अघोषित और अप्रत्यक्ष हल्ला बोल है... इसके लिए भाजपा और उससे जुड़े दलों के नेताओं के थियेटर में पहुंचने राष्ट्रगान गान, हाऊ इज जोश और भारत माता की जय जैसे उद्घोष इसकी पुष्टि भी करते हैं। वहीं सामांतर ही दोहरी धार के रूप में प्रतिद्वंद्वी पक्ष की नकारात्मक छवि स्थापित करने के लिए भी एक और फिल्म थियेटर में टिकी हुई है जिसका नाम एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर है। इनके बीच एक और अप्रत्याशित हिंदी फिल्म है बाल ठाकरे जो इस थ्योरी पर मोहर लगाती है कि सियासत का यकीन मीडिया, उसके मैनेजर और लाइजनर्स से उठ रहा है। 
मराठी भाषी क्षेत्र के सबसे सशक्त सियासी हस्ताक्षरों में से एक बाला साहेब ठाकरे को हिंदी भाषा में किन लोगों के बीच कहां तक,किस स्वरूप में और क्यों पहुंचाया जा रहा है यह बहुत साफ है। इसमें कोई राकेट साइंस जैसी पेचीदगी नहीं है। यह सब अचानक नहीं हुआ है। इससे पहले शुद्र द राजजिंंग जैसी विचारधारा पोषित फिल्में बनी, सेंसर में फंसी और अंत में सिनेमाघरों में प्रदर्शित होने में नाकाम रही। बेशक ये फिल्म व्यावसायिक रूप में बहुत नुकसानदेह रही, लेकिन इसकी पायरेटेड कॉपी और बस्तियों में प्रोजक्टर शो ने सियासत की आंखें चौंधिया कर रख दी। एससी एसटी एट्रोसिटी एक्ट पर बीते साल सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था के बाद मचे बवाल के बाद यह इतनी तेजी से सर्कुलेट हुई और वंचित समुदायों के एकीकरण का बड़ा माध्यम बनी। सियासी पंडित स्वीकार करते हैं कि वर्ग चेतना की वजह से ग्वालियर-चंबल अंचल में दक्षिणपंथी विचारधारा को वोटों के रूप में बड़ा झटका सहन करना पड़ा। 
इनके साथ ही द गाजी अटैक, परमाणु, टॉयलेट एक प्रेमकथा, पैडमैन, सुई-धागा जैसी कई फिल्में प्रत्यक्ष तौर पर सरकारों के कार्यक्रमों की वाहक और उनकी इमैज बिल्डिंग का चोखा टूल साबित हुई हैं... नए साल में जो फिल्में रिलीज हुई हैं इनका डाटा एनालिसिस आने वाले दिनों में सिनेमा और मीडिया का भविष्य तय करेगा। अगर यह दर्शकों के साथ निर्माता-निर्देशकों को तृप्त करने में कामयाब रही तो मीडिया को मिलने वाला सियासत का विज्ञापन शेयर अभी और नीचे जाने वाला है। अभी तक ऐसी फिल्में मेकर्स के लिए दाल-रोटी चलाने और संबंध बढ़ाने वाली थी। बाक्स आॅफिस की कसौटी पर उन्हें एक बड़ी हिट का इंतजार था। उरी द सर्जिकल स्ट्राइक ने ये ख्वाब भी पूरा कर दिया है। रिपोर्ट्स कहती हैं कि इस यह फिल्म 200 करोड़ के क्लब में शामिल हो रही है जहां अभी तक व्यावसायिक सिनेमा और खान एक्टर्स का एकतरफा बोलबाला रहा है। मणिकर्णिका भी कतार में है... हां एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर का नकारात्मक मैसेज दर्शकों ने ठुकरा दिया है वहीं ठाकरे महाराष्ट्र के बाहर रंग नहीं जमा सकी है। 
दरअसल मनोरंजन उद्योग की नई भूमिका और मीडिया इंडस्ट्री का पराभव सूचना उद्योग में बहुत बड़े बदलाव की अनसुनी दास्तां है। 19 वीं शताब्दी के बाद दुनिया के नक्शे पर शायद ही ऐसा कोई देश हो जहां मिशनरी मीडिया ने परिवर्तन, क्रांति और बदलाव का मार्ग प्रशस्त न किया हो। अधिकांश बड़े लीडर्स बैरिस्टर और पत्रकार रहे फिर चाहे वह अंबेडकर हों या महात्मा गांधी। पश्चिमी देशों में तो अब भी मीडिया जनमत को प्रभावित करने की ताकत रखता है। यही ताकत देश के मेनस्ट्रीम और वर्नाकुलर मीडिया में भी थी, लेकिन बाजार के दबाव में समझौतों ने मीडिया को इंडस्ट्री का दर्जा दिलाया और उसकी ताकत को मरोड़कर भी रख दिया। इसके बाद सूचना क्रांति और इंटरनेट के उपयोग ने रही सही कसर भी पूरी कर दी। फेसबुक, इंस्टाग्राम और वाट्सअप जैसे एप्स ने टारगेटेड ग्रुप्स में इतनी मारक सूचनाओं का मार्ग प्रशस्त किया कि वह माइंड मेकअप का सबसे सशक्त औजार बन गई। मिस्त्र जैसे देश में तो यह तख्तापलट और क्रांति का भी कारण बनी। जब सरकारें इससे परेशान हुईं और उन्होंने इसे इस्तेमाल करना चाहा तो पिछले पांच सालों में प्रोफेशनल इस माइंड गेम में दाखिल हो गए और देखते ही देखते सच्ची-झूठी सूचनाओं के संजाल से यह माध्यम भी इतना दूषित हो गया कि इसकी विश्वसनीयता खत्म हो गई। इसके बाद एक बार फिर मेनस्ट्रीम मीडिया का ही सहारा था लेकिन वहां के बिकाऊ माहौल और उसके एक्सपोज होने के बाद अब नए टूल की जरूरत थी जो लोगों को सियासी सपोर्ट के लिए चार्ज और ब्रेनवाश कर सके। इस कसौटी पर फिल्में खरी उतर रही हैं और यह सिलसिला जारी रहा तो मेनस्ट्रीम मीडिया को और बुरे दिन देखने होंगे।

 

ये आर्तनाद क्यों..? बरस-बरस मैं चाहूं जीना...

ये आर्तनाद क्यों..? बरस-बरस मैं चाहूं जीना...

मौजूदा हालातों में सवाल उस कालिख का नहीं है जो आरोपों के रूप में बी चंद्रकला पर लगी है या मेघालय में जान गंवाने वाले मजदूरों के रूप में खनन उद्योग पर है। असल सवाल तो सरकार और सियासत समेत उन संस्थाओं पर जिनके बारे में देश को यह भ्रम है कि वह देश के प्रत्येक नागरिक के लिए चौकीदार, वॉच डॉग और गार्ड क्ष गार्जियन की भूमिका में हैंं। चाहे सबसे अभिजात्य आईएएस अफसरों के कुनबे की संस्था हो,  मेन स्ट्रीम मीडिया हो या शेष सियासी दल, कहीं से भी न तो चंद्रकला के लिए आवाज सुनाई दी, न ही मेघालय में जिंदा रहने की जंग में जान गंवाने वाले मासूम श्रमिकों के लिए... 



रे रंगरेज तू रंग दे मुझको, 
बरस-बरस मैं चाहूं जीना ।। 
चुनावी छापा तो पडता रहेगा,लेकिन जीवन के रंग को क्यों  फीका किया जाए, दोस्तों ... सीबीआई छापों में घिरीं यूपी कैडर की चर्चित आईएएस बी चंद्रकला फिलहाल बेशक स्टडी लीव पर हैं, लेकिन इस शायराना अंदाज से फिर सुर्खियों में हैं। सपा के शासन में उन्हें हमीरपुर, बुलंदशहर, मेरठ सहित पांच प्रमुख जिलों में डीएम बनने का मौका मिला था। फिर यूपी में योगी सरकार बनते ही वह ऐच्छिक प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली चली गईं थीं और जब लौटीं तो सीबीआई और अब ये आर्तनाद सामने है... एक ऐसी ही दर्दभरी कसमसाहट मेघालय से भी सुनाई दे रही है जहां ईस्ट जयंतिया हिल्स जिले में 13 दिसंबर 2018 को एक अवैध रैटहोल खदान में अचानक पानी भर जाने से 15 खनिकों के अंदर फंस जाने की घटना को पूरे एक माह बाद एक शव मिला है और शेष के शव मिलने तक की उम्मीद क्षीण हो चली है। कथित रूप से देश में सबसे लंबे चलने वाले इस अभियान पर कलंक है कि इसमें मजदूरों को बचाने की कारगर कोशिश नहीं की गई। क्योंकि यहां माइनिंग का मुद्दा सरकार बदल सकता है इसलिए किसी सियासी दल के कान पर जूं नहीं रेंगी और रही सही कसर मेनस्ट्रीम के उस मीडिया की चुप्पी ने पूरी कर दी जो प्रिंस के बोरवेल में गिरने पर घंटों लाइव दिखता है या थाइलैंड में छात्रों के ऐसी ही सुरंग में फंसने के बाद टीआरपी के लिए सक्रिय हो गया था। 
दोनों घटनाओं में बेशक कोई मेल न हो, लेकिन इनमें सियासत के महीन रेशमी फंदे आसानी से नजर आते हैं जो इन्हें एक जैसा रंग देते हैं। सोशल मीडिया के लाइक्स , लेडी दबंग जैसी उपमाओं में नेताओं और अभिनेताओं को मात देने वाली आईएएस बी. चंद्रकला खनन घोटाले में घिरने के  बावजूद  प्रेरक कहानी है... चाहे अभी खनन आरोपों का अंतिम सच बाहर आना बाकी है। ...27 सिंतबर 1979 को मौजूदा तेलंगाना के करीमनगर में अनुसूचित जनजाति के परिवार में जन्मी चंद्रकला स्कूली पढ़ाई में ही लड़खड़ा गई थीं और उनकी शादी कर दी गई  मगर उन्होंने हार नहीं मानी और  डिस्टेंस लर्निंग से पोस्ट ग्रेजुएशन तक पढ़ाई कर संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा में सफलता हासिल की। उनके पिता बी. किशन रामागुंडम स्थित फर्टिलाइजर कॉपोर्रेशन आॅफ इंडिया में वरिष्ठ टेक्नीशियन से सेवानिवृत्त हैं जबकि मां  बी. लक्ष्मी और बहन बी. मीना उद्यमी हैं। आईएएस की नौकरी दबंग अंदाज में करने के दौरान उन आरोप लगे कि वह सरकार के एजेंट की तरह काम कर रही हैं। इस आरोप के साथ ही यह साफ हो गया था कि अगर यूपी में सरकार बदली तो बी चंद्रकला के कार्यकाल को खंगाला जा सकता है। लेकिन उन पर जो आय से अधिक संपत्ति के आरोप हैं वह चंद्रकला की पृष्ठभूमि को देखते हुए राजनीति प्रेरित होने के आसार हैं। शायद इसीलिए उनकी कविता के भावार्थों  में सियासत में फंसी योद्धा के हौसले और आर्तनाद का संगम दिखता है। 
...उधर मेघालय में भी एक ऐसा ही आर्तनाद सैकड़ों फुट गहरी चुहेदानी जैसी कोयला सुरंगों में कहीं दफन हो गया है। यहां कहा जाता है कि आदिवासी बहुल इस इलाके में नेपाल, बांग्लादेश और असम से बालश्रमिक आते हैं। जयंतियां पहाड़ियों के आसपास करीब 70 हजार बच्चे रैट माइनिंग का काम करते हैं, लेकिन इनकी राष्ट्रीयता, जाति, नस्ल और गरीबी और ऐसी जानलेवा गरीबी (मजबूरी) के बारे  में कोई अधिकृत आंकड़े आज तक मौजूद नहीं हैं। पिछले महीने, मेघालय में अवैध खनन में नेताओं की भूमिका के खिलाफ आवाज उठाने वाली सामाजिक कार्यकर्ता एग्नेस खारशिंग और उनकी सहयोगी अनिता संगमा पर हमला हुआ था। एग्नेस बिस्तर पर हैं लेकिन वे कहती हैं, 'मेरे पास ऐसे सबूत हैं जिससे यह आरोप पुष्ट हो रहा है कि सरकार की जानकारी में ही ये अवैध कोयला खदानें चल रही हैं। एग्नेस पर हमले और खदान में हुए हादसे के बाद सरकार घिरी हुई नजर आ रही है, क्योंकि  मेघालय में कोयला खनन का मुद्दा सरकार पलटने की कूवत रखता है। कहते हैं यहां चुनाव में कांग्रेस इसीलिए हारी क्योंकि उसने एनजीटी का बैन हटवाने के लिए कुछ नहीं किया। हालांकि भाजपा की गठबंधन सरकार भी इसमें कुछ नहीं कर पाई है, बल्कि आरोप यह लगने लगे हैं कि भाजपा की गठबंधन की सरकार की शह के कारण अवैध खनन में बढ़ोत्तरी हुई है। 
मौजूदा हालातों में सवाल उस कालिख का नहीं है जो आरोपों के रूप में बी चंद्रकला पर लगी है या मेघालय में जान गंवाने वाले मजदूरों के रूप में खनन उद्योग पर है। असल सवाल तो सरकार और सियासत समेत उन संस्थाओं पर जिनके बारे में देश को यह भ्रम है कि वह देश के प्रत्येक नागरिक के लिए चौकीदार, वॉच डॉग और गार्ड गार्जियन की भूमिका में हैंं। चाहे सबसे अभिजात्य आईएएस अफसरों के कुनबे की संस्था हो,  मेन स्ट्रीम मीडिया हो या शेष सियासी दल, कहीं से भी न तो चंद्रकला के लिए आवाज सुनाई दी, न ही मेघालय में जिंदा रहने की जंग में जान गंवाने वाले मासूम श्रमिकों के लिए... बाद में अगर चंद्रकला निर्दोष साबित हो भी जाएं तो क्या उनकी छविभंग की भरपाई करना संभव होगा? क्या उनका वह दंबग कौशल बरकरार रह पाएगा या वे भी सियासत के साथ पटरी बैठाने वाली जमात का हिस्सा बन कर लचर ढर्रे का हिस्सा बन जाएंगी? क्यों ऐसा नहीं हो सकता कि केस झूठे साबित होने के बाद शिकायतकर्ता और जांच अधिकारी को सजा हो और वोट के लालच में सियासत इतनी अंधी न हो सके कि किसी मासूम को जान गंवाना पड़े।


Monday, March 26, 2018

सत्ता कब्जाने वंचित वर्गों से साजिश

बहुत बेचैनी है... सोशल रिसर्चर्स और वंचित वर्गों के थिंक टैंक में। शासन-प्रशासन के संस्थागत परिवर्तन और कोर्ट के फैसलों से जुड़ती कड़ियां अंधियारी तस्वीर बना रहीं हंै। योजना आयोग समेत प्रशासनिक व्यवस्था तथा शिक्षा के ढांचे में बदलाव जैसे सियासी फैसलों के बीच तीन तलाक और एससी-एसटी एक्ट में शिथिलता जैसे अदालती फैसले आए हैं। इससे जहां अनुसूचित जातियों को अस्पृश्यता के दंश याद आ रहे हैं, वहीं मुस्लिम समुदाय में यह संदेश उपजा है कि उनके घर में सियासत ने तीन तलाक के दांव से लैंगिक आधार पर बंटवारा हो गया है। इनके अलावा पिछड़े वर्गों की कई कमजोर जातियां भी धुंधलके में हैं।
संविधान से धाार्मिक स्वतंत्रता के उत्सव और अवसर मिलने से अस्पृशयता वाली पहचान को भूलने वाली अनुसूचित जातियां परसंस्कृतिकरण का पर्याय बन बन चुकी हैं। इनमें से अधिकांश अपने आप को सबसे बेहतर हिंदू साबित करने में सत्ताभेदी सियासी राष्ट्रवाद का हिस्सा भी बन रही हैं। लेकिन ये भूल गए कि अंग्रेजों द्वारा 1872 में पहली जनगणना के बाद से अस्पृश्य जातियों को हिंदुत्व में शामिल करने का सिलसिला शुरू हुआ था जो 1931 की जातिगणना आने तक व्यापक स्वरूप में आ चुका था, जिसमें सबसे घृणित सफाईपेश जाति को वाल्मिकी नाम दिया गया जो संख्या के लिहाज से इस वर्ग में दूसरे नंबर पर थी। इसके  अलावा कई सदियों से सताई गईं ये जातियां जब संचार माध्यमों के जरिए एकत्र हो कर शक्तिपुंज बनने लगीं तो उनकी सामाजिक मर्यादा सुनिश्चित करने वाले अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के प्रावधान सुप्रीम कोर्ट ने इतने लचीले कर दिए हैं कि उसके औचित्य पर ही सवाल उठने लगे हैं। यानी लगभग एक चौथाई आबादी ऐसे संक्रमणकाल में दाखिल हो गई है जहां वे सदियों की यातना भूल रहे थे पर आगे का रास्ता अंधियारा होता जा रहा है। चाहे लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार हो या, मिर्चपुर गोहाना या खैरलांजी, यहां दमन का शिकार दलित न्याय से वंचित ही रहे हैं।  शंका है कि जब एससी-एसटी एक्ट के इतने सख्त प्रावधान  होने के बाद भी सजा का प्रतिशत एक चौथाई भी न हो तब आगे क्या होगा? क्या गारंटी कि संविधान से मिले अधिकार प्रभावित नहीं होंगे, जिनमें शामिल है अनुच्छेद 14 : विधि के समक्ष समता। अनुच्छेद 15 : धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद प्रतिषेध । अनुच्छेद 17 : अस्पृश्यता का अंत। अनुच्छेद 21 : प्राण- दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण। अनुच्छेद 23 : शोषण के विरूद्ध अधिकार।
दरअसल इनके अलाव भी देश की कुल आबादी का दो तिहाई वंचित वर्ग 21 वीं शताब्दी में भी रोटी-कपड़ा मकान जैसी मूलभूत जरूरतों के सियासी खिलौना बने हुए हैं। वैश्विकरण और सूचना क्रांति के बाद उपजे नए अवसरों के बीच मनरेगा से शुरू कहानी, भोजन के अधिकार से होते हुए प्रधानमंत्री आवास और स्वच्छता और शौचालय निर्माण के अध्याय तक आ चुकी है। लेकिन यह मूल सवाल यहां से गायब हो चुका है कि आजादी के इतने सालों बाद तक इन्हें समाज की मुख्यधारा में लाकर स्वयं सक्षम क्यों नहीं बनाया जा सका। ये इनके खिलाफ षड़यंत्र था या सरकारों की निर्योग्यता? हालात ये हैं कि रोटी-कपड़ा मकान और धर्म में मशगूल ये वर्ग उस शिक्षा से महरूम है जो इन्हें शेष आबादी के साथ अवसरों की प्रतियोगिता में खड़ा कर सके।
शिक्षा का सरकारी स्कूली तंत्र देशभर में भरभरा रहा है, जबकि उच्च शिक्षा में अब भी सरकारी संस्थान सर्वोत्कृष्ट बने हुए हैं। इससे स्कूली स्तर पर ही इस वर्ग की अधिकांश छात्र आबादी ड्रॉपआउट हो रही है। जो बचते हैं उन्हें उच्च शिक्षा और अवसरों की प्रतियोगिता के लिए औसत योग्यता के कारण कड़ी चुनौतियों से जूझना पड़ रहा है। दूसरी और बाजारवाद और वैश्विकरण के दबाव से मुक्त जेएनयू जैसे संस्थान सामाजिक शोधादि से इन वर्गों में एक चेतना का निर्माण कर रहे हैं, जिसमें कन्हैया कुमार या शेहला रशीद जैसे छात्र वंचित वर्गों के यूथ आइकन बन रहे हैं, मगर अब 52 विश्वविद्यालय सरकारी सरपरस्ती से महरूम होंगे और सामाजिक शोध के बजाए बाजार के मुताबिक संचालित हो सकेंगे। क्योंकि शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन के लिए कस्तूरीरंजन कमेटी की रिपोर्ट जल्द ही पेश कर लागू करने की तैयारी है जिसमें गुणात्मक और कौशलविकास शिक्षा रिटर्न आॅफ मैकाले कही जा सकती है।
मौजूदा परिस्थिति में असमानता की खाई गहरी होने की आशंका है। चाहे वह शिक्षा और रोजगार के अवसर हों या कानून के समक्ष बराबरी का या जातीय अस्मिता का। ऐसे में देश के सभी समुदाय एक-दूसरे के प्रति शक शुबहे के भाव से ग्रसित हो सकते हैं। जबकि वास्तविकता में इससे किसी समूह वर्ग या जाति को कोई सीधा बड़ा फायदा नहीं मिल रहा। क्योंकि शासकीय स्तर के अवसर जनसंख्या के अनुपात में किसी समुदाय को ईकाई प्रतिशत में भी लाभ देने की स्थिति में नहीं है। लेकिन संदेश यही है कि दूसरे समुदाय उनके हक में सेंध लगा रहे हैं, इसमें असमानता की खाई फैलेगी। जहां वंचितों की सत्ता-अवसरों में भागीदारी और सामाजिक न्याय सबसे निचले आभासी स्तर पर होगा।

Friday, January 22, 2016

दबाव समूहों के नवसामंत

 हम प्रभावशाली दबाव समूहों के नवसामंतों के युग में जी रहे हैं जो आपके निर्णयों को नियंत्रित करने के लिए कुछ भी रचने को बेकरार रहते हैं। इसे स्थापित करता है  जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में फिल्म निर्माता करन जौहर का 'इंटॉलरेन्स' के मुद्दे पर उठाया सवाल।  करन ने कहा, 'आप अपनी जिंदगी के बारे में बोलने पर भी जेल में जा सकते हैं. तो फिर अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब ही क्या है? इसका मतलब तो यह हुआ कि अभिव्यक्ति की आजादी हमारे देश में सबसे बड़ा मजाक है और लोकतंत्र दूसरा बड़ा मजाक करन ने ये बात बेशक फिल्मी दुनिया के संदर्भ में कही होगी, लेकिन अगर आप इसे रोहित वेमुला केस से जोड़ कर देखेंगे तो आप पाएंगे कि जो बात मैंने कल आर्टिकल में लिखी है ये उसके समर्थन का एक अलग सा चेहरा है... रोहित की जान ही इसलिए गई कि उसने अभिव्यक्ति की आजादी को इस्तेमाल करने की कोशिश की थी।

Thursday, January 21, 2016

अनसुना कर ‘औकात’ बताना छोड़िए...

किसी मुद्दे को खत्म करने की ऐसी सियासी तड़प शायद ही पहले कभी देखी गई होगी। मंत्रियों और कुलपति को भाजपा की क्लीनचिट के तुरंत बाद मानव संसाधन मंत्री स्मृति इरानी ने अपने बयान से यह स्थापित करने की कोशिश की है कि रोहित वेमुला की खुदकुशी की वजह उसका दलित होना नहीं था। इस प्रकरण की कड़ियों को तथ्यों और जातियों से परिभाषित करने में  ऐसा पूर्वाग्रही एकालाप सुनाई दिया जो सोलहवीं- सत्रहवीं शताब्दी की मानसिकता का परिचय देता है। बंधुत्व,समानता या प्रजा जैसे शब्द और वर्ग जरूरतों और लक्ष्यों के मुताबित इस्तेमाल किए जाते हैं, जिसमें सुनवाई और न्याय, प्रभावशाली दबाव समूह के कारण नौटंकी बन कर रह जाता है। अनसुनी से ध्वनित होता है कि सुनवाई के लिए जिस हैसियत और औकात की जरूरत है वह तुम्हारे वर्ग की नहीं है।
रोहित वेमुला के लिए खुदकुशी आसान विकल्प था क्योंकि वह व्यवस्था से लड़ रहा था और उस पर जिम्मेदारियों का बोझ भी था। अगस्त 2015 की जिस फिल्म ‘मुजफ्फर नगर अभी बाकी है’ के प्रदर्शन को लेकर दलित बनाम दलित विरोधी संघर्ष शुरू हुआ उसमें कोई दलित मांग नहीं थी। बल्कि यह दलित छात्रों के समुदाय द्वारा अपने अधिकारों को स्थापित करने की चेष्ठा थी। यह ऊंचे सुर में बराबरी और वंचित एकता का उद्घोष था। इसे खामोश करने के लिए इतने स्तरों पर निष्ठुरों का पूरा वर्ग एकजुट हो कर इस जिद और जुनून को दबाने में लामबंद हुआ कि उस अंधे कुंए से आवाज बाहर लाने के लिए वेमुला को खुदकुशी करना पड़ी। हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी ने रोहित और उनके चार साथियों को न केवल होस्टल से निकाला बल्कि यूनिवर्सिटी में कई जगह जाना भी प्रतिबंधित कर दिया। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने इसमें मंत्री बंडारू दत्तात्रेय को यह समझाया कि इन अंबेडकरवादियों की गतिविधियां राष्ट्रद्रोही हैं, जिसे उन्होंने बकायदा पत्र के माध्यम से मानव संसाधन मंत्रालय को भेज दिया बगैर उनके संगठन का पक्ष जाने, इस पर मानव संसाधन मंत्रालय की अति सक्रियता कुछ ऐसी कि छह सप्ताह में पांच पत्र लिखे गए और आरोपित दलित छात्रों को आरोप मुक्त करने वाले कुलपति को बदलते ही नए कुलपति ने उन्हें नैसर्गिक न्याय से वंचित कर सीधी सजा सुना दी। न्याय के लिए  हाईकोर्ट तक उनकी हर पुकार अनसुनी रही और दलितों के नाम पर दुकानदारी करने वाले बड़े लोग खामोश और छोटे बेखबर बने रहे। अकेले लड़ने से हारे रोहित के जान देने के बाद सोशल मीडिया ने स्मृति को मनु स्मृति रानी बताया तो उनके बयान को झूठा बताते हुए दस दलित प्रोफेसरों ने इस्तीफे की पेशकश की है। लेकिन बड़े-बड़े दलित नरसंहारों और उसके बाद किसी को भी सजा न होने पर खामोशी रहने वाले अन्य जातीय या सामाजिक संगठन अब भी मूकदर्शक हैं।
ये अनदेखी और अनसुनी पिछले दस-पंद्रह सालों में लगातार बढ़ी है।  सामुदायिकता और सामुहिकता के नाम पर सबसे वंचित समुदायों के वास्तविक वंचितों के सवाल गुम होते जा रहे हैं, लेकिन अत्याचार और भेद का आधार वही जन्म है, जिसका जिक्र अपने सुसाइड नोट में रोहित वेमुला ने किया है कि मेरी जाति की मेरी मौत का कारण है... रोहित के सुसाइट नोट के कुछ वाक्य तो इस परिप्रेक्ष्य में दहला देने के लिए पर्याप्त हैं। ...मैं अपनी आत्मा और देह के बीच खाई को बढ़ता हुआ महसूस कर रहा हूं... एक इंसान की कीमत , उसकी पहचान एक वोट एक संख्या, एक वस्तु में सिमट कर रह गई है। कोई भी क्षेत्र हो, अध्ययन में, राजनीति में, मरने में जीने में कभी एक व्यक्ति को उसकी बुद्धिमता से नहीं आंका गया। मेरा जन्म मेरे लिए एक घातक हादसा है... मैं अतीत का एक शुद्र बच्चा... ये ऐसे सवाल हैं जिन्हें आवाज देने की कीमत रोहित ने अपनी जान से चुकाई है, लेकिन ये एक मामला है ऐसे कितने रोहित और कितने मामले हैं जिनमें अन्याय और भेद का आधार जन्म है।
बेशक ये कहा जाता हो कि ऊंचे आर्थिक या बौद्धिक वर्ग में प्रवेश करते ही समाज उदार हो जाता है और उसकी वर्जनाएं शिथिल हो जाती है, मगर ये आभासी लगता है। जब मध्यप्रदेश में हाल ही में आंदोलित हुए दलित समुदाय के दो आईएएस रमेश थेटे और शशि कर्णावत की व्यथा भी रोहित जैसी लगती है। मूल रूप से उनकी भी शिकायत यही है कि कोई ऐसा फोरम नहीं है,जहां तसल्लीबख्श और त्वरित सुनवाई हो। थेटे का कहना उन्हें चिन्हित कर ऐसे आरोपों में खींचा जा रहा है, जिसमें अन्य समुदाय के आरोपियों को नजरअंदाज कर दिया गया है, कुछ ऐसा ही आरोप शशि कर्णावत का भी है। सेवानिवृति के चंद घंटों पहले अपने घर पर विभागीय जांच का नोटिस चस्पा होने का रंज झेलने वाले वरिष्ठ आईएएस के सुरेश भी दलित समुदाय से थे, जिन्हें नियमों की रोशनी में उन्हें पदोन्नित दी जा सकती थी मगर मिली नोटिस की सूचना। समाज की मुख्यधारा में दलित बहुत ऊंचे मकामों तक भी पहुंचे हैं... यहां भेद न होने और कम होने का आभास-आंकलन भी है। इनमें समूह की पहचान से बाहर रहने और सामान्य होने के दबाव से ऐसा वर्ग बन गया है जो बड़े सवालों पर भी मौन है। असंगठित होने के कारण शेष लोग और उनके छोटे-मोटे संगठन अपनी जरूरतों में उलझे रहते हैं। ऐसे में सुनवाई की सटीक व्यवस्था लगातार टलते फैसले जैसी हो गई है जिसमें आज के प्रावधान अंतरिम व्यवस्था लगते हैं, औपचारिक सुनवाई से प्यास बुझने की बजाए ‘औकात’ पता चलती है। अगर उचित व्यवस्था हो तो ऐसे सवालों का वक्त रहते जवाब खोजा जा सकता है,मगर दलित सवाल तो अब हाशिए से भी बाहर खिसकने लगे हैं। जिनकी अनसुनी बड़ी गूंज बन सकती है।

Tuesday, September 21, 2010

ख्वाब और खुदा...

दिन भर ख्वाब बुनता हूं
रात भर जागता रहता हूं

मंजिलें दौड़ती रहती हैं
मैं भी भागता रहता हूं

न जाने कब मिले मौका
अब भी ताकता रहता हूं

फस्ले ईमां बोई थी मैंने
दुख ही काटता रहता हूं

खुदा अब खुद ही चले आना
मैं खिड़की से झांकता रहता हूं