बहुत बड़ी दुनिया में छोटे-छोटे पलों को जीने की ख्वाहिश और जिंदा रहने की जंग में अंतहीन दौड़ का हिस्सा हूं और डरता हूं गिरने से क्योंकि सबसे कठिन है जैसा अच्छा लगता है वैसा जीना... खोजता हूं अपने जैसे दीवानों को जो रोज भूलते हैं जरूरतों का प्रेम और सीखते हैं कैसे बिना मतलब किसी को अपनी रूह की गहराइयों में महसूस किया जा सकता है... जहां न रिश्ता हो न नाता न जरूरतें न मजबूरियां। मौजूद हो तो केवल यह अहसास कि कोई हमारा हो या न हो हम तो किसी के हैं।
Sunday, September 28, 2008
गुनाहगार हैं रहने दो मुंह िछपाए हुए
कहने की बात है,िसतारों से हम िमले... हर बार जो देखा कोई चील आसमांं पर िदन का तारा बनी नजर आई। सूरज बादलों की ओट में एेसे िछपा थे जैसे झगड़े के बाद बीच वाले बीवी के पहलू और दरवाजे की ओट में रहते हैं। िदल्ली में संतोष के बाद तािहर ने भी दम तोड़ िदया । िदल्ली हो या मालेगांव मरने वाले मासूमों की लाशें हमेशा की तरह सवाल करती रहीं और हमारा िसस्टम बेजुबान गाय की तरह भोला और लोग बेहया िहजड़ों की तरह नजर आने लगे। लानत है। खुदा को लगा िक एेसे लोगोंं िहसाब लेना चािहए... उन्होंने कयामत का इंतजार िकए बगैर दुिनयाए फानी का रुख िकया तो पाया िक मुजिरमों की कतारों में अवाम के लोगों के साथ नेताओं और अफसरों की लंबी लाइनें लगी थीं और बम फैंकने वाले असल लोग िहसाब की बारी के इंतजार में चैन की नींद िनकाल रहे थे।
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