बहुत बड़ी दुनिया में छोटे-छोटे पलों को जीने की ख्वाहिश और जिंदा रहने की जंग में अंतहीन दौड़ का हिस्सा हूं और डरता हूं गिरने से क्योंकि सबसे कठिन है जैसा अच्छा लगता है वैसा जीना... खोजता हूं अपने जैसे दीवानों को जो रोज भूलते हैं जरूरतों का प्रेम और सीखते हैं कैसे बिना मतलब किसी को अपनी रूह की गहराइयों में महसूस किया जा सकता है... जहां न रिश्ता हो न नाता न जरूरतें न मजबूरियां। मौजूद हो तो केवल यह अहसास कि कोई हमारा हो या न हो हम तो किसी के हैं।
Saturday, January 23, 2010
जाति और शिक्षा की जंग में हैं जीत के बीज
माफ करना मेरी यह पोस्ट राहुल गांधी के सिलसिले में जारी चर्चा के बीच सुरेश चिपलूनकर के पुराने ब्लाग का जवाब बन कर भी नजर आएगी और कई तथ्य वहां आप को जस ते तस भी मिल सकते हैं दरअसल अनुपयोगी जनसंख्या के सिलसिले में आम विचारों को खोजता हुआ मैं वहां पहुंच गया था और सिलसिले से सिलसिला मिल गया। दर हकीकत राहुल तो निमित्त नजर आते हैं, दरअसल संस्कारों की घुट्टी में मिली सामंती सोच ने देश की प्रगति को जकड़ कर रखा है, जिसका नाता न केवल देश की अनुपयोगी (शैक्षिक जनसंख्या से है ) बल्कि विकास से भी है। शायद इसिलिए सुरेश चिपलूनकर जैसे तथाकथित विचारवान लोग भी इसकी चपेट में आने से नहीं बच सके हैं। ( संदर्भ सरेश चिपलूनकर का ब्लाग आरक्षण आक थू)
देश को ताजा नेतृत्व की जरूरत है, क्योंकि देश की प्रगति के सवाल का जवाब हैं नीचे लिखे सवालों जैसे कई सवाल जो सोते हुए लोगों को जगाने के लिए पर्याप्त हैं।
1 भारत की कितनी आबादी अनुपयोगी है (शैक्षिक लिहाज से)
2 इस अनुपयोगी आबादी में कितने फीसदी लोग आरक्षण श्रेणी में आने वाले तबके के हैं।
3 इन अनुपयोगी लोगों में कितनी महिलाएं हैं।
4 आरक्षित आबादी के कितने लोगों को आरक्षण का लाभ मिला है और किस श्रेणी पर
5 भारत की सर्वोच्च सिविल सेवाओं के शीर्षस्थ पदों पर कितने फीसदी लोग आरक्षण से पहुंचे हैं। तीसरे और चौथे दर्जे पर पहुंचने वालों को आधार न बनाएं तो बेहतर।
6 देश की किसी भी तरह की शीर्षस्थ संस्थाओं में उच्च पदों पर जातिगत समीकरण क्या है, इसमें आप अपनी सुविधा के लिए डिब्बाबंद सुअर मांस बेचने वालों से लेकर सरकार तक सभी को शामिल कर सकते हैं।
तर्कसम्मत ढंग से सोचना कि हमारी बढ़ती आबादी आग क्यों बन रही है ऊर्जा क्यों नहीं। फिर भी कहीं कसर बच जाए तो इन बिंदुओं का ध्यान करना बात बन जाएगी।
1 जापान किस चीज के दम पर दुनिया में अपनी हस्ती बनाए हुए है?
2 इजराइल की अस्मिता का राज क्या है?
3 आबादी में आगे चीन इतना ताकतवर कैसे हो गया?
1947 से अब तक अगर शैक्षिक व सरकारी तंत्र में वास्तविक रूप से आरक्षण प्रभावी होता तो देश में साक्षरता सौ फीसदी तक पहुंच गई होती और आज हालात ये हैं कि भारतीय मस्तिष्क जिसका लोहा दुनिया मानती है, उसके दो तिहाई युवा निरक्षर हैं (इसका स्रोत संयुक्त राष्ट्र की रपट है), सोचो अगर ये सब काबिल होते तो क्या केवल आरक्षित-अनारक्षित नौकरियों के लिए रेस लगाते या रोजगार के नए क्षेत्रों और आयामों का सजृन करते हुए दुनिया की जरूरत बन जाते। अगर वैसे कुछ होता तो तकनीक या अन्य तरह के विविध ज्ञान के अस्त्रों से लैस यह युवा आज देश को किस स्थिति में पहुंचा चुके होते।
देश के विचारवान लोगों की भीड़ जो सामंती सोच के गुंड़ों के गिरोह में तब्दील हो कर विघटन में जुट गई है उसे अगर जोर लगाना है और वह वाकई देश का भला चाहती है तो हजारों साल से उच्च वर्ग के सताए हुए वर्ग पर टिप्पणियां छोड़ कर यह सोचे कि अगर यह वर्ग भी किसी तरह से शिक्षित हो कर मुख्यधारा में शामिल हो गया तो हिंदु सामाजिक संस्तरण भले ही बराबरी पर आ जाए लेकिन देश कहां से कहां पहुंचेगा। संसद में देश का प्रतिनिधित्व करने वालों को गरियाने से बेहतर होगा कि यह सोचें कि देश के युवाओं को किसी नई दिशा में जाना चाहिए न कि ठहरे हुए पानी की कम पड़ती मछलियों (नौकरियां और शैक्षणिक संस्थाओं पर आरक्षण) पर हक जमाने के लिए जातिवाद और नस्लवाद को भड़काएं।
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3 comments:
देवेश भाई, धन्यवाद… जो आप मेरे ब्लॉग पर आये तथा लेख पर टिप्पणी की। मैं आपके विचारों का भी सम्मान करता हूं… लेकिन फ़िर भी जातिगत आरक्षण पर मेरे विचार वही रहेंगे। हां यदि आरक्षण का आधार आर्थिक होता तो स्थिति निश्चित ही अलग होती, लेकिन जिस देश में नीतियाँ वोट-बैंक के आधार पर तय होती हों, वहाँ ये तो चलेगा ही। रही बात मेरे "भगवा" विचारों पर आपकी आपत्ति की, तो मैं यही कहूंगा कि यह विचारधारा की लड़ाई है। हो सकता है आपको "बदज़ात कांग्रेस" के मीडिया हाइप वाले भोंदू राजकुमार में हीरो दिखाई देता है, यह आपकी चॉइस है मैं इसमें क्या कर सकता हूं।
मेरी जो "लाइन" है उससे मैं कभी न तो आलोचना से हटा, न ही तारीफ़ से। संघ-भाजपा वालों को अछूत बनाने की जो प्रक्रिया नकली सेकुलरवादियों ने सफ़लतापूर्वक चला रखी है, उसके खिलाफ़ किसी को तो खड़ा होना ही पड़ेगा।
आप भी अच्छा लिखते हैं और आपकी 24 नवम्बर वाली "साध्वी और मानवाधिकार" वाली पोस्ट से यह बात ज़ाहिर होती भी है कि आपके दिल में भी कसक है, लेकिन कई मुद्दे ऐसे होते हैं जिन पर एकमत होना कठिन होता है, यही तो लोकतन्त्र है। आप अपना काम करते रहें, मैं भी अपना काम कर रहा हूं… कैसी भी परिस्थिति हो, एक दिन में बदल तो नहीं जाती। आलोचनाओं से मुझे मजबूती मिलती है…
एक बार पुनः धन्यवाद एवं समस्त शुभकामनाओं सहित…
aarkshan ka virodh nahi hai. aapko jatigat aadhar par mile to bura hai ,hame aarthik aadhar par mile to jayaj, behatar hai,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,vah ri mansikata.
शुक्रिया भाई लोगों.... कम से कम जलते सवालों पर जवाबों का मरहम रखा तो... यहां तो लोग मूल सवालों से भाग जाते हैं.... वैसे अगर आप मुझे पुनः ध्यान से पढेंगे तो पाएंगे कि मेरा तात्पर्य आरक्षण नहीं बल्कि योग्यता पाने और जबरिया निर्योग्यता को दूर करने से है... तय है रास्ता सरल नहीं होगा, मतभेद तो ठीक मनभेद भी हो सकते हैं लेकिन इस पर विचार जरूर होना चाहिए...
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