Wednesday, November 5, 2008

काले प्रेसिडेंट के ताज में मुशिकलों के मोती

ओबामा ने जीत दजॆ की। अच्छा लगा। अमेरिका में पहले अश्वेत प्रेसिडेंट होने के गौरव ने नस्लभेदी अमेरिका में जीतते नजर आते लोकराज में बेशक एक नई हवा को बहने का रास्ता दिया हो, लेकिन असली इम्तहान बाकी है। पिछले एक दशक से कई समस्याओं से जूझते अमेरिका में खोखली होती अथॆ व्यवस्था, बेलगाम नई पीढ़ी और अपने आप को बचाए रखने के लिए दुनिया पर मजबूरी की चौधराहट इस देश को किस दिशा में ले जाएगी, अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। बहरहाल बराक ओबामा जाहिर तौर पर नौसिखिए हैं और संकट के बादल गहरे तब डूबते अमेरिका की असफलताओं का ठीकरा कहां फूटेगा यह समझना आसान है। वैसे भी डायलेसिस पर चल रही अथॆवव्यस्था को जिंदा रखने के लिए अमेरिका पूंजीवाद का पल्लू छोड़ कर समाजवाद और साम्यवाद जैसी लगती एक नई व्यवस्था की तरफ एक कदम बढ़ा चुका है और बैंक से लेकर व्यापार और बीमा जैसे सेक्टर को वह सभी यथा संभव सहायता दे रहा है। लेकिन बाजारों से कैश फ्लो सूख रहा है और कजॆ वसूली न होने से बैंकों की सांसे उखड रही हैं। शायद यही कारण है कि ओबामा आउटसोसिॆग जैसी चीजों में भारत आदि को रोकने का एलान कर रहे हैं, पर यह वैसी ही कोशिश है जैसे कोई यह समझे की ओस की बूंदों से जंगल की आग रुक जाएगी। वैसे भी ओबाम नेता कम मदारी ज्यादा नजर आते हैं, और लोगों को बरगलाने में भारतीय नेताओं से भी आगे नजर आते हैं, इसिलए कभी हनुमान की प्रतिमा तो कभी गांधी की तस्वीर बेचारे भारतीय इतने में ही फूल नहीं समां रहे हैं। ओबाम ने इस प्रकार के कई टोटके लगभग सारी प्रभावशाली कम्युनिटिज को बहलाने में अपनाए। उन्हें सफलता भी मि्ली लेकिन इसकी कीमत क्या होगी और कौन चुकाएगा अभी हिसाब होना बाकी है।

1 comment:

Vidyut Prakash Maurya said...

देवेश कल्याणी जी,
नमस्कार,
आपने ओबामा की मुश्किलों का सही जिक्र किया है। सबसे बड़ी चुनौती अमेरिका की अर्थ व्वस्था ही है....