बहुत बड़ी दुनिया में छोटे-छोटे पलों को जीने की ख्वाहिश और जिंदा रहने की जंग में अंतहीन दौड़ का हिस्सा हूं और डरता हूं गिरने से क्योंकि सबसे कठिन है जैसा अच्छा लगता है वैसा जीना... खोजता हूं अपने जैसे दीवानों को जो रोज भूलते हैं जरूरतों का प्रेम और सीखते हैं कैसे बिना मतलब किसी को अपनी रूह की गहराइयों में महसूस किया जा सकता है... जहां न रिश्ता हो न नाता न जरूरतें न मजबूरियां। मौजूद हो तो केवल यह अहसास कि कोई हमारा हो या न हो हम तो किसी के हैं।
Saturday, August 29, 2009
सरमद याद आया
अमेरिका के लास एंजिलस में गो टापलेस आंदोलन के चलते जब महिलाएं अनावृत स्तनों के साथ सड़कों पर आई एक बार फिर ये सवाल दुनियाभर में पहुंच गया है कि जब पुरुष टापलेस हो सकते हैं तो महिलाएं क्यों नहीं। आखिर प्रकृति से एकाकार होने का हक उन्हे क्यों न मिले... इन्हें दो मनुष्यों के बीच लिंग विविधता की दीवार और स्त्री पर अधिकार की जंजीर क्यों बनाया जाए। हम में से शायद ही कोई स्त्री होगी जिसने सीना अनावृत न कर पाने की बंदिशों के कारण कोई पीड़ा न उठाई हो। चाहे वह अपने नवजात को स्तनपान करने के वक्त की हो या तपती गरमी में बंद कमरे में पसीने से भीगने की... यौन भेद की इन दीवारों के औचित्य और गैरजरूरी होने पर काफी बहस की गुंजाइश है, मगर यह तय है कि सूरत तो बदलना चाहिए। इसी सिलिसले में दिल्ली के मस्तमौला फकीर सरमद का अक्स जहन में उभर आया है। उसे बादशाह औरंगजेब ने इसिलए मरवा दिया था, क्योकि वह आधा कलमा पढ़ता था और न तो किसी को पूज्य मानता था न ही कपड़ों की जरूरत महसूस करता था। कहते हैं जब उससे पूछा गया कि नंगा क्यों है तो उसने कहा मालिक (परमात्मा) ने गुनाहगारों को गुनाह छिपाने के लिए ये कपड़े और दूसरे परदे दिए हैं, मेरे और परमात्मा के बीच अब कोई परदा नहीं क्योंकि मैं सारे गुनाहों से मुक्त हूं। इसलिए कपड़ों की जरूरत क्या है। बस यही बात उसकी मौत का कारण बनी। स्त्रीयों के अनावृत स्तन को पापमुक्त मानने-देखने की ताकत व समझ दुनिया के कौने-कौने तक कब तक पहुंचेगी नहीं जानता, लेकिन यह तय है कि प्रकृति कभी फैशन बन कर तो कभी आंदोलन बन कर और कभी पोर्न इंडस्ट्री बन कर पुरुषवाद और महिलाओं को एकाधिकार वाली यौन दासियों में तब्दील करने वाली दीवारों में सुराख बनाती रहेगी।
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