ये आर्तनाद क्यों..? बरस-बरस मैं चाहूं जीना...
मौजूदा हालातों में सवाल उस कालिख का नहीं है जो आरोपों के रूप में बी चंद्रकला पर लगी है या मेघालय में जान गंवाने वाले मजदूरों के रूप में खनन उद्योग पर है। असल सवाल तो सरकार और सियासत समेत उन संस्थाओं पर जिनके बारे में देश को यह भ्रम है कि वह देश के प्रत्येक नागरिक के लिए चौकीदार, वॉच डॉग और गार्ड क्ष गार्जियन की भूमिका में हैंं। चाहे सबसे अभिजात्य आईएएस अफसरों के कुनबे की संस्था हो, मेन स्ट्रीम मीडिया हो या शेष सियासी दल, कहीं से भी न तो चंद्रकला के लिए आवाज सुनाई दी, न ही मेघालय में जिंदा रहने की जंग में जान गंवाने वाले मासूम श्रमिकों के लिए...
रे रंगरेज तू रंग दे मुझको,
बरस-बरस मैं चाहूं जीना ।।
चुनावी
छापा तो पडता रहेगा,लेकिन जीवन के रंग को क्यों फीका किया जाए, दोस्तों
... सीबीआई छापों में घिरीं यूपी कैडर की चर्चित आईएएस बी चंद्रकला फिलहाल
बेशक स्टडी लीव पर हैं, लेकिन इस शायराना अंदाज से फिर सुर्खियों में हैं।
सपा के शासन में उन्हें हमीरपुर, बुलंदशहर, मेरठ सहित पांच प्रमुख जिलों
में डीएम बनने का मौका मिला था। फिर यूपी में योगी सरकार बनते ही वह ऐच्छिक
प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली चली गईं थीं और जब लौटीं तो सीबीआई और अब ये
आर्तनाद सामने है... एक ऐसी ही दर्दभरी कसमसाहट मेघालय से भी सुनाई दे रही
है जहां ईस्ट जयंतिया हिल्स जिले में 13 दिसंबर 2018 को एक अवैध रैटहोल
खदान में अचानक पानी भर जाने से 15 खनिकों के अंदर फंस जाने की घटना को
पूरे एक माह बाद एक शव मिला है और शेष के शव मिलने तक की उम्मीद क्षीण हो
चली है। कथित रूप से देश में सबसे लंबे चलने वाले इस अभियान पर कलंक है कि
इसमें मजदूरों को बचाने की कारगर कोशिश नहीं की गई। क्योंकि यहां माइनिंग
का मुद्दा सरकार बदल सकता है इसलिए किसी सियासी दल के कान पर जूं नहीं
रेंगी और रही सही कसर मेनस्ट्रीम के उस मीडिया की चुप्पी ने पूरी कर दी जो
प्रिंस के बोरवेल में गिरने पर घंटों लाइव दिखता है या थाइलैंड में छात्रों
के ऐसी ही सुरंग में फंसने के बाद टीआरपी के लिए सक्रिय हो गया था।
दोनों
घटनाओं में बेशक कोई मेल न हो, लेकिन इनमें सियासत के महीन रेशमी फंदे
आसानी से नजर आते हैं जो इन्हें एक जैसा रंग देते हैं। सोशल मीडिया के
लाइक्स , लेडी दबंग जैसी उपमाओं में नेताओं और अभिनेताओं को मात देने वाली
आईएएस बी. चंद्रकला खनन घोटाले में घिरने के बावजूद प्रेरक कहानी है...
चाहे अभी खनन आरोपों का अंतिम सच बाहर आना बाकी है। ...27 सिंतबर 1979 को
मौजूदा तेलंगाना के करीमनगर में अनुसूचित जनजाति के परिवार में जन्मी
चंद्रकला स्कूली पढ़ाई में ही लड़खड़ा गई थीं और उनकी शादी कर दी गई मगर
उन्होंने हार नहीं मानी और डिस्टेंस लर्निंग से पोस्ट ग्रेजुएशन तक पढ़ाई
कर संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा में सफलता हासिल की। उनके पिता बी. किशन
रामागुंडम स्थित फर्टिलाइजर कॉपोर्रेशन आॅफ इंडिया में वरिष्ठ टेक्नीशियन
से सेवानिवृत्त हैं जबकि मां बी. लक्ष्मी और बहन बी. मीना उद्यमी हैं।
आईएएस की नौकरी दबंग अंदाज में करने के दौरान उन आरोप लगे कि वह सरकार के
एजेंट की तरह काम कर रही हैं। इस आरोप के साथ ही यह साफ हो गया था कि अगर
यूपी में सरकार बदली तो बी चंद्रकला के कार्यकाल को खंगाला जा सकता है।
लेकिन उन पर जो आय से अधिक संपत्ति के आरोप हैं वह चंद्रकला की पृष्ठभूमि
को देखते हुए राजनीति प्रेरित होने के आसार हैं। शायद इसीलिए उनकी कविता के
भावार्थों में सियासत में फंसी योद्धा के हौसले और आर्तनाद का संगम दिखता
है।
...उधर मेघालय में भी एक ऐसा ही आर्तनाद सैकड़ों
फुट गहरी चुहेदानी जैसी कोयला सुरंगों में कहीं दफन हो गया है। यहां कहा
जाता है कि आदिवासी बहुल इस इलाके में नेपाल, बांग्लादेश और असम से
बालश्रमिक आते हैं। जयंतियां पहाड़ियों के आसपास करीब 70 हजार बच्चे रैट
माइनिंग का काम करते हैं, लेकिन इनकी राष्ट्रीयता, जाति, नस्ल और गरीबी और
ऐसी जानलेवा गरीबी (मजबूरी) के बारे में कोई अधिकृत आंकड़े आज तक मौजूद
नहीं हैं। पिछले महीने, मेघालय में अवैध खनन में नेताओं की भूमिका के खिलाफ
आवाज उठाने वाली सामाजिक कार्यकर्ता एग्नेस खारशिंग और उनकी सहयोगी अनिता
संगमा पर हमला हुआ था। एग्नेस बिस्तर पर हैं लेकिन वे कहती हैं, 'मेरे पास
ऐसे सबूत हैं जिससे यह आरोप पुष्ट हो रहा है कि सरकार की जानकारी में ही ये
अवैध कोयला खदानें चल रही हैं। एग्नेस पर हमले और खदान में हुए हादसे के
बाद सरकार घिरी हुई नजर आ रही है, क्योंकि मेघालय में कोयला खनन का मुद्दा
सरकार पलटने की कूवत रखता है। कहते हैं यहां चुनाव में कांग्रेस इसीलिए
हारी क्योंकि उसने एनजीटी का बैन हटवाने के लिए कुछ नहीं किया। हालांकि
भाजपा की गठबंधन सरकार भी इसमें कुछ नहीं कर पाई है, बल्कि आरोप यह लगने
लगे हैं कि भाजपा की गठबंधन की सरकार की शह के कारण अवैध खनन में बढ़ोत्तरी
हुई है।
मौजूदा हालातों में सवाल उस कालिख का नहीं
है जो आरोपों के रूप में बी चंद्रकला पर लगी है या मेघालय में जान गंवाने
वाले मजदूरों के रूप में खनन उद्योग पर है। असल सवाल तो सरकार और सियासत
समेत उन संस्थाओं पर जिनके बारे में देश को यह भ्रम है कि वह देश के
प्रत्येक नागरिक के लिए चौकीदार, वॉच डॉग और गार्ड गार्जियन की भूमिका में
हैंं। चाहे सबसे अभिजात्य आईएएस अफसरों के कुनबे की संस्था हो, मेन
स्ट्रीम मीडिया हो या शेष सियासी दल, कहीं से भी न तो चंद्रकला के लिए आवाज
सुनाई दी, न ही मेघालय में जिंदा रहने की जंग में जान गंवाने वाले मासूम
श्रमिकों के लिए... बाद में अगर चंद्रकला निर्दोष साबित हो भी जाएं तो क्या
उनकी छविभंग की भरपाई करना संभव होगा? क्या उनका वह दंबग कौशल बरकरार रह
पाएगा या वे भी सियासत के साथ पटरी बैठाने वाली जमात का हिस्सा बन कर लचर
ढर्रे का हिस्सा बन जाएंगी? क्यों ऐसा नहीं हो सकता कि केस झूठे साबित होने
के बाद शिकायतकर्ता और जांच अधिकारी को सजा हो और वोट के लालच में सियासत
इतनी अंधी न हो सके कि किसी मासूम को जान गंवाना पड़े।
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