Thursday, January 31, 2019

मीडिया एक्सपोज, ब्रेनवॉश का नया टूल फिल्में 

 

काहे का बिग गन... वो तो साला दलाल है। डील मिले तो कुछ भी बेच सकता है... इथिक्स-विथिक्स चीज क्या है? ये शब्द देश की राजधानी दिल्ली के बड़े पत्रकार और मीडिया मैन कहलाने वाले एक नहीं कई लोगों के लिए जुमले की तरह पिछले कई सालों से इस्तेमाल हो रहे थे। सीन तब चेंज होने लगा जब छुटभैये तक रेटकार्ड में जगह पा गए और दर्शकों से लेकर पाठकों तक में सब एक्सपोज होने लगे। प्रायोजित खबरें - मुद्दों के पक्ष-विपक्ष में एकतरफा तेवर- कलेवर और भाषा  के बेखौफ इस्तेमाल ने उनकी साख को मटियामेट कर दिया... जिनके लिए उन्होंने अपना सब-कुछ  दांव पर लगाया, अब वे ही भाव गिराएंगे... इसकी बकायदा शुरुआत हो चुकी है... जरा गौर करेंगे तो सब साफ हो जाएगा। 
लोकसभा का चुनाव सम्मुख है और एक ही हफ्ते में चार ऐसी फिल्में थियेटर में धूम मचा रही हैं, जिनके पीछे का पॉलिटिकल एजेंडा आसानी से नजर आ जाता है... दक्षिणपंथी विचारधारा के राष्ट्रवाद को उरी द सर्जिकल स्ट्राइक और मणिकर्णिका से पोषण मिलेगा इससे कौन इनकार कर सकता है। यह सकारात्मक रूप से दर्शकों के माइंड मेकअप करने का अघोषित और अप्रत्यक्ष हल्ला बोल है... इसके लिए भाजपा और उससे जुड़े दलों के नेताओं के थियेटर में पहुंचने राष्ट्रगान गान, हाऊ इज जोश और भारत माता की जय जैसे उद्घोष इसकी पुष्टि भी करते हैं। वहीं सामांतर ही दोहरी धार के रूप में प्रतिद्वंद्वी पक्ष की नकारात्मक छवि स्थापित करने के लिए भी एक और फिल्म थियेटर में टिकी हुई है जिसका नाम एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर है। इनके बीच एक और अप्रत्याशित हिंदी फिल्म है बाल ठाकरे जो इस थ्योरी पर मोहर लगाती है कि सियासत का यकीन मीडिया, उसके मैनेजर और लाइजनर्स से उठ रहा है। 
मराठी भाषी क्षेत्र के सबसे सशक्त सियासी हस्ताक्षरों में से एक बाला साहेब ठाकरे को हिंदी भाषा में किन लोगों के बीच कहां तक,किस स्वरूप में और क्यों पहुंचाया जा रहा है यह बहुत साफ है। इसमें कोई राकेट साइंस जैसी पेचीदगी नहीं है। यह सब अचानक नहीं हुआ है। इससे पहले शुद्र द राजजिंंग जैसी विचारधारा पोषित फिल्में बनी, सेंसर में फंसी और अंत में सिनेमाघरों में प्रदर्शित होने में नाकाम रही। बेशक ये फिल्म व्यावसायिक रूप में बहुत नुकसानदेह रही, लेकिन इसकी पायरेटेड कॉपी और बस्तियों में प्रोजक्टर शो ने सियासत की आंखें चौंधिया कर रख दी। एससी एसटी एट्रोसिटी एक्ट पर बीते साल सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था के बाद मचे बवाल के बाद यह इतनी तेजी से सर्कुलेट हुई और वंचित समुदायों के एकीकरण का बड़ा माध्यम बनी। सियासी पंडित स्वीकार करते हैं कि वर्ग चेतना की वजह से ग्वालियर-चंबल अंचल में दक्षिणपंथी विचारधारा को वोटों के रूप में बड़ा झटका सहन करना पड़ा। 
इनके साथ ही द गाजी अटैक, परमाणु, टॉयलेट एक प्रेमकथा, पैडमैन, सुई-धागा जैसी कई फिल्में प्रत्यक्ष तौर पर सरकारों के कार्यक्रमों की वाहक और उनकी इमैज बिल्डिंग का चोखा टूल साबित हुई हैं... नए साल में जो फिल्में रिलीज हुई हैं इनका डाटा एनालिसिस आने वाले दिनों में सिनेमा और मीडिया का भविष्य तय करेगा। अगर यह दर्शकों के साथ निर्माता-निर्देशकों को तृप्त करने में कामयाब रही तो मीडिया को मिलने वाला सियासत का विज्ञापन शेयर अभी और नीचे जाने वाला है। अभी तक ऐसी फिल्में मेकर्स के लिए दाल-रोटी चलाने और संबंध बढ़ाने वाली थी। बाक्स आॅफिस की कसौटी पर उन्हें एक बड़ी हिट का इंतजार था। उरी द सर्जिकल स्ट्राइक ने ये ख्वाब भी पूरा कर दिया है। रिपोर्ट्स कहती हैं कि इस यह फिल्म 200 करोड़ के क्लब में शामिल हो रही है जहां अभी तक व्यावसायिक सिनेमा और खान एक्टर्स का एकतरफा बोलबाला रहा है। मणिकर्णिका भी कतार में है... हां एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर का नकारात्मक मैसेज दर्शकों ने ठुकरा दिया है वहीं ठाकरे महाराष्ट्र के बाहर रंग नहीं जमा सकी है। 
दरअसल मनोरंजन उद्योग की नई भूमिका और मीडिया इंडस्ट्री का पराभव सूचना उद्योग में बहुत बड़े बदलाव की अनसुनी दास्तां है। 19 वीं शताब्दी के बाद दुनिया के नक्शे पर शायद ही ऐसा कोई देश हो जहां मिशनरी मीडिया ने परिवर्तन, क्रांति और बदलाव का मार्ग प्रशस्त न किया हो। अधिकांश बड़े लीडर्स बैरिस्टर और पत्रकार रहे फिर चाहे वह अंबेडकर हों या महात्मा गांधी। पश्चिमी देशों में तो अब भी मीडिया जनमत को प्रभावित करने की ताकत रखता है। यही ताकत देश के मेनस्ट्रीम और वर्नाकुलर मीडिया में भी थी, लेकिन बाजार के दबाव में समझौतों ने मीडिया को इंडस्ट्री का दर्जा दिलाया और उसकी ताकत को मरोड़कर भी रख दिया। इसके बाद सूचना क्रांति और इंटरनेट के उपयोग ने रही सही कसर भी पूरी कर दी। फेसबुक, इंस्टाग्राम और वाट्सअप जैसे एप्स ने टारगेटेड ग्रुप्स में इतनी मारक सूचनाओं का मार्ग प्रशस्त किया कि वह माइंड मेकअप का सबसे सशक्त औजार बन गई। मिस्त्र जैसे देश में तो यह तख्तापलट और क्रांति का भी कारण बनी। जब सरकारें इससे परेशान हुईं और उन्होंने इसे इस्तेमाल करना चाहा तो पिछले पांच सालों में प्रोफेशनल इस माइंड गेम में दाखिल हो गए और देखते ही देखते सच्ची-झूठी सूचनाओं के संजाल से यह माध्यम भी इतना दूषित हो गया कि इसकी विश्वसनीयता खत्म हो गई। इसके बाद एक बार फिर मेनस्ट्रीम मीडिया का ही सहारा था लेकिन वहां के बिकाऊ माहौल और उसके एक्सपोज होने के बाद अब नए टूल की जरूरत थी जो लोगों को सियासी सपोर्ट के लिए चार्ज और ब्रेनवाश कर सके। इस कसौटी पर फिल्में खरी उतर रही हैं और यह सिलसिला जारी रहा तो मेनस्ट्रीम मीडिया को और बुरे दिन देखने होंगे।

 

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